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वृहत् पूजा-संग्रह पूजा करते, भव सागर होता सुतर रे। अकपट भावे आतम अर्पण, पूजन होता शिवसुख कर रे ॥ त० ॥ ५ ॥ पूजक जन जग पूज्य बने हैं, प्रभु पूजा सत्य शिव सुन्दर रे। जन्म मरण मिटता है उसका, फर्ता नर हो जाय अमर रे॥ त० ॥ ६ । ज्ञानी की सेवा ज्ञान बढावे, ज्ञान विना नर होता खर रे । ज्ञानावरणीय कर्म विपाके, दूर दूर रहता निज घर रे । त० ॥७॥ च्यवन कल्याणक जन्म कल्याणक, दीक्षा कल्याणक उत्सव पर रे । हरि कवीन्द्र अक्षत विधि दर्शन, चन्दन पूजन आनन्द कर रे । त० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ कृत्वाक्षतैः सुपरिणामगुणैः प्रशस्तं, सत्स्वस्तिकंलघु चतुर्गति वारकं च। आत्माक्षतोत्तमगुणाय यजामहे श्री, वीरं वराक्षन गुणैक विशेष भावम् ।
मन्त्र-ॐ हीं अर्ह परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म समृलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा। - ॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥
॥दोहा॥ जड़ चल जग जूठन सभी, पुद्गल रूप अनेक । भोगे सुखकी भूख ना, मिटा हुआ अतिरेक ।।