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श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
॥ कवाली ॥ प्रभु श्रीशांति जिन तुमने, लगाई ध्यानकी धारा । होवे धारा वही जिसको, वही हो जावे भव पारा ॥ अंचली ॥ तरु नंदितले छठकी तपम्या ध्यानमे लीना । क्षपक श्रेणी लगे चढने सातसे आठ पगधारा ॥ प्रभु० ॥१॥ प्रथम पद ध्यान चौथेका, जोर जस स्थान नवमेमें । लोभ को सूक्ष्मतस्करके, दशम गुणस्थान स्वीकारा || प्रभु०॥२॥ गारमे स्थान जा पहुंचे, करी क्षय मोहको जडसे । क्षणे अन्तिम द्वादशके, दूसरा पाय उजियारा ॥ प्रभु० ॥ ३ ॥ जहर ज्यूं मत्रसे अहिकार डकमें देहसे आवे | ध्यानसे त्यू विषय अणुमें, होतहे मनका सचारा || प्रभु० ॥ ४ ॥ अमाये अन्य काष्ठोंके, अनलर ज्यू शांत हो जाता । स्वयं मन शांत त्यू होता, विषयसे होत जब न्यारा ॥ प्रभु० ॥ ५ ॥ अनल शुभ ध्यानसे घाति, करमको भस्म फरदीना। हुओ प्रभु जान केरल है, लिया निजरूपको धारा ॥ प्रभु० ॥६॥ तिथि सुदि पोपकी नवमी, निशाकर३ वास भरणीमें। आत्म लक्ष्मी प्रभु पाये, वल्लभ मन हर्प नही पारा ॥ प्रभु० ॥ ७ ॥
१ अहि - मर्प। २ अनल-अग्नि। ३ निशाकर-चंद्र