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वृहत् पूजा-संग्रह सूक्षम संपराय कहावे, क्षय मोह करण अधिकारीरे ॥ प्रभु० ॥ २॥ मोहके क्षय होने से पहुँचे, क्षीणमोह गुणठाने । तस अंतसमय शुक्ल ध्याने, पद दूसरे होय विहारीरे ॥ प्रभु० ॥३॥ मंत्र प्रभाचे जिम विष अहिका, देहसे दंशमें आये। इस ध्यानले तिम मन थावे, अणुमात्र विषय अवधारीरे ॥ प्रमु० ॥ ४ ॥ अग्नि जिम अन्य काष्ट अभावे, आप शांत हो जावे। तिम विषयांतर के अभाचे, स्वयमेव शांत मन धारीरे ॥ प्रभु० ॥ ५॥ ध्यानाग्निसे घाति करमका, नाश प्रभुने कीना । उज्वल केवल धरलीना, धन्य शांतिनाथ जयकारी रे ॥ प्रभु० ॥ ६ ॥ पोष सुदि नवमी भरणी शशी, शांति शांतिके धामी । आतम लक्ष्मी पद पामी, वल्लभ मन हर्ष अपारी रे ॥ प्रभु० ॥ ७॥
[ जिनसे ऊपर की तर्ज (चाल) न गाई जावे उनके लिये और खास करके पंजाबियों के लिये यही ढाल कव्वाली में रखी है। दोनों में से जिनकी जो मर्जी होवे गा सकते हैं, क्योंकि मतलब दोनों का एक ही है। हाँ यदि अधिक उत्साह होवे और दोनों ही गाना चाहें तो बड़ी खुशी से गा सकते हैं। ]