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वृहत् पूजा-संग्रह वी० ॥ ७ ॥ सुखसागर भगवान, जिनहरि पूज्य प्रभु की। पूजा कवीन्द्र करो भाव, अकर्मक पद दातारी ॥ वी० ॥८॥
॥ काव्यम् ॥ यो ऽकल्याण पदं० ॐ हीं श्रीं अहं श्री महावीर स्वामिने जलादि अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा। || चतुर्थ श्री वासुदेव पद प्राप्ति पूजा ॥
॥दोहा॥ पुण्य पाप दो रूप हैं, कर्म शुभाशुभ भाव । पुण्य रूप पूजा करो, उत्तरोत्तर गुणदाच ॥ १॥
(तर्ज-करम गति टारी नाहिं टरे) प्रभु की पूजा पुण्य भरे, पाप सन्ताप हरे ॥०॥टेर॥ उस उस कर्म उदय से मरिचि, पाकर विविध विधान । छह परिव्राजक छह सुर भव कर, भोगे पुण्य प्रधान ॥ प्र० ॥ १ ॥ सतरहवें भव राजगृही में, विश्वभूति शुभ नाम । कपट देख झट साधु होते, ज्ञान तपो गुण धाम । प्र० ॥ २ ॥ देख विरोधी हँसी मुनीश्वर, हन्त ! निदान करें । तप फल हो आगामी भव में, मारूं तुझे अरे ॥ प्र० ॥ ३ ॥ अष्टादश भव महाशुक्र में अद्भुत लील करे । सुतापति पोतन पुर नृप घर, सात स्वप्न अवतरे ।। प्र०॥४॥