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वृहत् पूजा-संग्रह बनो अहिंसक आतम हेतु, भव सागर तारक यह सेतु । वैर भाव हो शान्त अभय भव, भय में अटको ना ॥१०॥४॥ हरि कवीन्द्र बोले अतिहरसे, उत्तरोत्तर गुणठाणा फरसे, दिव्य चरण पा भरो विषय विप, अन्तर घटको ना ॥अ०॥५।।
॥दोहा॥ आठ रूप है आतमा, चारित्रातम खास । आठ कर्म चय रिक्त हो, हो चारित्र प्रकाश ॥१॥
आचारज पाठक मुनि, घर चारित्राचार । - पंचाचार विचार से, परमेष्ठी अधिकार ॥२॥ (तर्ज-धन धन ऋषभ देव भगवान युगला धर्मनिवारण वाले)
सुखी होते हैं वे नर नार, आत्म संयम धन पाने वाले । नहीं जन मन रंजन का काम, निशदिन रहते जो निष्काम । नहीं निंदा स्तुति से आराम, आतमा में नित रमने वाले ॥ सु० ॥ १ ॥ हृदय में पहिले लेते तोल, बोलते सच्चा मीठा बोल। नहीं रहती है उनमें पोल, सहज सक्रिय नवजीवन वाले ॥ सु० ॥२॥ धरते हैं परमातम ध्यान, ज्ञान-विज्ञान आत्म परधान । जिन्हें जीवन में न है अभिमान, त्याग वैराग बढानेवाले ॥ सु० ॥ ३॥ तजते विषयों को विष मान, सजते सतसंगी सुविधान ।