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वृहत् पूजा-संग्रह
अनुकम्पा परधान । हरि कवीन्द्र आस्तिक आतम गुण, अमृत कीनो पान ॥ प्र० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥ निश्चय से व्यवहार से, एक अनेक सरूप | निजगुण समकित रत्न को, पाते हैं गुण भूप ॥१॥ दीपक से दीपक यथा, लट भँवरी के न्याय । आतम हो परमातमा, समकित शुद्ध उपाय ॥२॥
( तर्ज - अम्विका विरुद वखाने हो० )
जिन शासन का सार यही है, जिन शासन का सार । समकित रत्न उदार यही है, जिन शासन का सार ॥ जिन दर्शन तें दर्शन प्रकटे, जिन निक्षेप चार। चारों सत्य बतायें स्वामी, ठाणांग ठाण विचार || यही० ॥ १॥ आचारांगे दुय सुखंधे, निरयुक्ति निरधार । तीरथ दर्शन वन्दन पूजन, दर्शन भाव आधार || यही० ॥ २ ॥ दर्शन मूरति श्री जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा अधिकार | पंच कल्याणक भाव प्रकटते, हो दर्शन अधिकार || यही ० ||३|| आनन्दादिक परम उपासक, भाव प्रतिज्ञा धार | जीवन पावन सुविहित विधि से हो समकित साकार || यही० ॥ ४ ॥
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