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रत्नत्रय पूजा
३५७ किया निर्मल निश्चल वह, प्रभु पद सेव अमाय ॥ प्र० ॥४॥ मिटे अनन्तानु चन्धी ये, कलुपित चार कपाय । हरिकनीन्द्र प्रभुपद कृपया, जीवन ज्योति जगाय ॥ प्र० || ५ || ॥ दोहा ॥
शका आतम रूप की, मिट ते मन से आज । परमातम पद पा लिया, पाया सुखद स्वराज ॥१॥ कांक्षा जडता सग की, आज हुई निर्मूल । आतम गुण रमणीयता, प्रकटी शिव अनुकूल ॥२॥ (तर्ज - सुअप्पा आप विचारो रे० )
प्रभु से पायो दरशन दान, मिट गयो मोह अज्ञान || प्रभु || || मानु धन दिन धन घड़ी मेरी, धन जीवन परमान | मिटी विचिकित्सा अन सब ही हो गये सफल विधान || प्र० || १ || आरोपित सुन्दरता जडकी, असत अशिव पहिचान । सत्य तथा शिव सुन्दर गायो, आतम रूप महान ॥ प्र० || २ || भाव अनातम दूर हुआ अन, पाया आतम ज्ञान । कर्ता कर्म करण कारक सन, हो गये आतम थान || प्र० ||३|| क्षायिक भावे क्षायिक समकित, ग्रन्थी मेद निदान । प्रभु की प्रभुता निज जीवन में, त्रिभुवन तिलक समान || प्र० || ४ || शम सवेगी हो निजेंदी,