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जैनाचार्य श्रीमज्जिन हरिसागर सूरीश्वर शिप्य श्री कवीन्द्रसागरोपाध्याय विरचित
॥ रत्न त्रय पूजा॥ || मंगल पीठिका ॥
॥ दोहा॥ सुख सागर भगवान जिन, हरिपूज्येश्वर आप । आतम परमातम भजो, मिटे मोह सन्ताप ॥ १ ॥ दुख को हम चाहें नहीं, नित चाहें सुख सार। पर दुख ही दुख पा रहे, कारण कौन विचार ॥ २ ॥ क्या सुख होता ही नहीं १, क्या दुख जीव सुभाव १। क्या कोई दुख देत है ? क्यों यह बने बनाव ? ॥ ३ ॥ औषध से दुख ना मिटे, मिटे न धन जन योग। आतम धर्माराधते, हो दुख मूल वियोग ॥ ४ ॥ अपनी अपनी आतमा, का उपयोग विचार । जो पोचे पावें सही, वे सुख अपरम्पार ॥ ५ ॥ मृगमद मृग ढूंढ़त फिरे, पर ना पावे लेश । भटक . भटक वह मर मिटे, केवल पावे क्लेश ॥ ६ ॥ मैं मैं मैं करता फिरे, पर ना जाने भेद । खटिक घरे बकरा यथा,