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श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा ३२७ (तर्ज-अज्ञानी जीते मरते हैं दिन कारण वेगात )
अज्ञानी ऐमा करते हैं, ज्ञानी की गत ओर ॥ टेर ॥ चार दिशामें आग लगी हो, उपर धूप कड़ी । बीच बैठ जो तपे वही, पंचाग्नि तपस्या बड़ी ॥ अ० ॥ १ ॥ कमठ हठी शठ ब्राह्मण होता घर दारिद्रय भरा। जगपूजा निज उदर निमित्त साधु वेश धरा || अ० ॥ २ ॥ लोक चोक मर दर्शन सातिर दोडा दौड़ करी। प्रभु पारस मों साथ पधारे, दिलमें दया भरी ॥ अ० ॥ ३ ॥ नाग देव योगी। लकड़ मे तेरे देस जले। हिंसा युतु यह योग तपस्या,
से कहो फले १ ।। अ० ॥ ४ ॥ योगी कहता तुम क्या जानो, घोडे पडे घुमाओ। योग अगम है इसमे अपना क्यों तुम समय गुमाओ || अ०॥५॥ नाग यगल अधजला प्रभु लक्कड से तुरत निकालें । परमेष्ठी पर मत्र सुना, योगी! पासण्ड हटा ले ॥ ३० ॥ ६ ॥ धरणेन्द्र पदमावती होते, प्रभु पारस पदसगी। पिपधर विप को अमृतरुरता, प्रभु करणी थी चंगी । अ० १७|| मटा फोड़ हुआ लस अपना, मगा मट अभिमानी । असुर मेव माली मर होता, मन में दुश्मन जानी ॥ २० ॥ ८॥