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वृहत् पूजा-संग्रह राज्य पुत्रको सौंपके, धनस्थ जिनवर पास । लेइ दीक्षा खपी कर्मको, पावेंगे शिववास ॥४॥ नमन मेघरथको करी, दोनों गये निज धाम । देवरमणसे मेघरथ, आयो अपने ठाम ॥५॥
( लावनी-नेमजी की जान बड़ी भारी) . जगतमें जिनवर जयकारी, धरम जिनवरका सुखकारी ।। अंचली० ॥ दोष अष्टादशके त्यागी, प्रभु नहीं द्वषी नहीं रागी। धरम जग उनका फरमाया, सही है सच्चा सुखदाया। वीतराग जिनदेव है, नामका नहीं विचार । अरिहंत जिन शिव विष्णु विधाता, राम महेश गोपार । चाहे हों हरि हर गिरधारी, जगतमें जिनवर जयकारी ॥१॥ धरम साधु श्रावक कहिये, सर्वविरति साधु लहिये । देवरमण नाम के उद्यान में अशोक वृक्ष के तले बैठा हुआ सुन्दर संगीत-नाटक देख रहा था। इतने में वहां हजारों भूतों ने आकर राजा को खुश करने के लिये बड़ा भारी नाटक करना शुरू किया। उनका नत्य हो ही रहा था, कि एक विमान आसमान से नीचे उतरकर मेघरथ राजा के पास आया विमान में सुन्दराकृति एक पुरुप स्त्री सहित वैठा हुआ था । इनको देखकर प्रिय मित्रा ने अपने पति से पूछा कि हे नाथ ! ये कौन हैं ? और यहां किस कारण आये हैं ? राजा ने उसका खुलासा किया।