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पंच ज्ञान पूजा
१७५ न धारी रे। आतम भावे भविजन सेवो, जगजीवन हितकारी रे॥ तु० ॥ ४ ॥ अपर ज्ञान सब देश कहावे, केवल सरव विहारी रे। सर्व प्रदेशी जिनवर भासे, सासे श्री गणधारी रे ॥ तुं० ॥ ५ ॥ भए अयोगी गुणके धारक, श्रेणी चढी सुखकारी रे। अष्ट कर्मदल दूर करीने, परमातम पद धारी रे ॥ तु० ॥ ६ ॥ ऐसे ज्ञान घडो जगमाहे, सेवो शुद्ध आचारी रे ॥ सुमति कहे भविजन शुभभावे, पूजो कर इकतारी रे ॥ तुं० ॥ ७ ॥ फल अक्षत दीपक नैवेद्यसे, पूजो ज्ञान उदारी रे। पूजत अनुभव सत्ता प्रगटे, विलसे सुख ब्रह्मचारी रे ॥ तुं० ॥ ८॥ ॐ हीं श्रीपरमात्मने श्रीकेवलज्ञानधारकेभ्यः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा।
॥ कलश ॥ (तर्ज-केसरियाने जहाजको तिरायो) अशरण शरण कहायो, प्रभु थारो ज्ञान अनन्त सुहायो । अ० ॥ मति श्रुति अवधि अने मनपर्यव, केवल अधिक कहायो। भन्य सकल उपगार करत है, श्रीजिनराज बतायो ॥ प्र० ॥१॥ सरतर गच्छपति चद्रसूरीश्वर, राजत राज सवायो । तेजपुञ्ज रवि शशि सम सोहे, देखत दिल