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पंचकल्याणक पूजा १४७ एक जिन धर्ममय परम लय लीनता, दीनता सफल तज, रज निवारी ॥ हे अई० ॥र० ॥१॥ आत्मगुण अन्तरातमपणे वृत्तिता तजिय पहिरात्मजिन आण धारी ॥ हे अई० ||आ० ॥ २ ॥ शुद्ध सम्यक्त्व गुण, संपदा निज लही, सहीय शुद्ध धर्म रुचि, भास सारी ॥ हे अ० ॥ मा० ॥ ३ ॥ भानुजिम मलहले तेजपुजेकरी, प्रवर वपु भूपणे शोम भारी ।। हे अ० । शो० ॥ ४ ॥ विविध मणि रत्ननी जोती जगमग जगे, चन्द्रिका भास भासित करारी ।। है अ० ॥ भा० ॥ ५॥ प्रवर कुल शुद्ध राजन्य प्रमुख मुदा, आयुफर बंध नर भव सुधारी ॥ हे अ० ॥ न०॥६॥ गर्भ अवतार निज मात उदरे लहे, चाल शुभ लग्न शुभ योगचारी ॥ है अ० ॥ शु० ॥७॥ ५ सुपारी ५ पान एवं पुष्प व ईतर चढावें ।
॥दोहा॥ शुभदिन शुभ मुहूरत घडी, शुभ ऊँचे ग्रह चार । देवलोक चवि प्रभु लहे, मात उदर अवतार ॥ सुन्दरखर प्रासाद मांहि, मध्यनिशा जिनमात ।
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