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से आकर इस संसार में जन्म लेता है। अगर शुद्ध बुद्धि से विचार किया जाय तो ऐसा कथन ठीक भी नहीं जंचता। ऐसा मानने से मुक्ति का भी अभाव हो जाता है। क्योंकि शुद्धात्मा मुक्त ही होते हैं और मुक्त पुरुषों को जन्म - धारण करने से मुक्ति से वंचित होना पड़ेगा। फिर मुक्ति तो संसार की गतियों में से ही एक गति हो जायगी ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।
गीता में कहा है-जहां पहुंचकर फिर नहीं लौटते वही मोक्ष कहलाता है । वही उत्कृष्ट स्थान मेरा - आत्मा का है ।
अब यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि अर्हन्त कहां से आते हैं ? इसके उत्तर में जैनधर्म कहता है कि अर्हन्त पृथ्वीकाय से भी उत्पन्न होते हैं। किसी समय अर्हन्त की आत्मा पृथ्वीकाय के जीवों मे था लेकिन पृथ्वीकाय की योनि से निकल कर मनुष्य पर्याय धारण करके वे मनुष्य हुए और विशिष्ट साधना द्वारा आत्मिक मलीनता दूर करके, पूर्ण ज्ञान पाकर वे पूर्ण पुरुष हुए। तात्पर्य यह है कि पूर्ण पुरुष पृथ्वीकाय के जीवों में से भी निकल कर आते हैं।
बहुत से शनैः शनैः विकास मानने वाले लोग कहते हैं कि विकास धीरे-धीरे होता है, एकदम नहीं होता । अतएव यह कैसे माना जा सकता है कि पृथ्वीकाय से निकलते ही कोई जीव मनुष्य हो जाता है? आज कल के विज्ञान को दृष्टि में रखने से यह बात ठीक प्रतीत होती है, मगर आत्मा जैसे सूक्ष्मतम पदार्थ के लिए धीमे-धीमे विकास का यह नियम लागू नहीं हो सकता। यह तो स्थूल पदार्थों से ही संबंध रखने वाला नियम हो सकता है। महापुरुषों ने पृथ्वीकाय में भी जीव देखे हैं। पहले बहुत से लोग वनस्पति में भी जीव मानने में हिचकिचाते थे लेकिन प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस ने यह सिद्ध कर दिखाया कि वनस्पति में भी जीव हैं । जगदीशचन्द्र बोस ने विज्ञान की सहायता से वनस्पति में जीव सिद्ध किये हैं लेकिन प्राचीन महापुरुषों ने आधुनिक विज्ञान की सहायता के बिना ही पृथ्वीकाय और वनस्पति आदि में जीव का अस्तित्व प्रकट किया है। उनका यह कार्य ही उनकी पूर्णता का परिचायक है ।
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जिन महापुरुषों ने पृथ्वीकाय में जीव देखे हैं उन्होंने यह भी देखा है कि जीव पृथ्वीकाय से निकल कर मनुष्य भी होता है और पूर्ण पुरुष भी होता है। ऐसी दशा में हम आज के विज्ञान की मानें या उन महापुरुषों के प्रत्यक्ष, पूर्ण और अभ्रांत ज्ञान को मानें? आज के वैज्ञानिक विज्ञान चाहे जानते भगवती सूत्र व्याख्यान
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