________________
कवि ने इस कविता में विशेषतः खाने पीने का उल्लेख इसलिए किया है कि यह सृष्टि अन्नमय है। थोड़ी देर भूखे रहकर देखो तो पता चलेगा कि अन्न में क्या शक्ति है? जिन्हें खाने की अधिकता से अजीर्ण हो रहा है वे अन्न की शक्ति एवं महिमा क्या जानें? उन्हें क्या पता अन्न में कैसी बिजली है? जब तपस्या करें तब अन्न और उसके दान का महत्व जान पड़े।
___ मुसलमानों की हातिमताई पुस्तक में लिखा है कि हातिम बड़ा सखी हुआ है। वह दुष्काल के समय में पेट भरकर अन्न नहीं खाता था। कोई उससे पूछता कि आपके घर में दुष्काल का प्रभाव नहीं है, फिर आप पेट भर कर अन्न क्यों नहीं खाते? तब वह उत्तर देता-अगर हम अपना पेट भर लेंगे तब गरीबों की चिन्ता न होगी। गरीबों की भूख की व्यथा का अनुमान लगाना संभव नहीं रहेगा। तात्पर्य यह है कि अन्न का महत्व तप करने से, भूखे रहने से ही मालूम होता है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु की महत्ता उसके अभाव में ही भलीभांति अनुभव की जा सकती है।
आप लोग तप करते हैं लेकिन पारणा करते समय क्या यह भी सोचते हैं कि यह अन्न हमने क्यों त्यागा था? क्रोध, लोभ आदि के कारण, अन्न त्यागकर कोई संथारा ही क्यों न कर ले तो भी भगवान ने उसे विराधक कहा है। आराधक नहीं कहा। इसलिए तपस्या में क्रोधादि के कारण अन्न नहीं त्यागा जाता किन्तु दया के लिए त्यागा जाता है। दया के लिए और साथ ही निर्जरा के हेतु। तप करके पारणे के समय यह विचारना उचित है कि अब मैं अन्न से अपना ही पेट न भरूं किन्तु दूसरों को भी दान दूं। अगर सुपात्र-दान का अवसर मिल जाय जब तो कहना ही क्या है। क्योंकि सुपात्र बिना बुलाये तो आते हैं मगर बुलाने पर नहीं आते। दान के प्रति प्रेम हो तो हृदय में यह विचार होगा ही कि कोई सुपात्र आ जाय तो मेरा कल्याण हो जाय, या कोई अन्न के बिना दुखी तो नहीं हो रहा है। जो लोग अतिथिसत्कार के बिना खाते हैं, उनके विषय में कहा गया है -
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एवं सः। मुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो केवल इन्द्रियों के लिए ही खाता पीता है वह पाप का खाता है और उसका जीना वृथा है। जिसने दिया है, उसकी संभाल किये बिना खाना चोरी का खाना है।
कई लोग तप करते हैं मगर अज्ञान के कारण क्रोध किया करते हैं। उन्हें यह विचार नहीं होता कि मैंने दया के लिए तप किया है और अब क्रोध
- भगवती सूत्र व्याख्यान ६
00000000000
४००००००००००