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· · देख रही हूँ, ऊन्ति में से यह कौन सुवर्ण-पुरुष सिंह पर आरोहण करता चला आ रहा है। एक अमिताभ तारुण्य, जो मेरी अभीप्सा की अनी पर आकार ले रहा है।
'लो, यह मेरी उद्भिन्न कोख के जाज्वल्य कमल में उतरा चला आ रहा है।' - 'आह, असह्य है इसका तेज, इसका प्रताप, इसका अजर यौवन और सौंदर्य । ओ अनन्त, कैसे समा सकूगी तुम्हें अपने में · · ·! फोड़ दो मेरे इस मांसल गर्भ की मर्म-ग्रंथि को! मुझे विस्तीर्ण करो मनचाही, और समा जाओ मेरे भीतर । - 'मेरी वेदना और व्याकुलता का अन्त नहीं।
__. . 'उतर आये तुम! · · · मैं फैल चली अपने से परे। ओ विशुद्ध, नग्न वैश्वानर, तुम जो मेरे अगाधों को भेदते चले आ रहे हो तुम कौन हो? · . .
और देवानन्दा शान्त, निस्तरंग, निःस्तब्ध, निस्पन्द, एक अथाह समाधिसुख में जाने कब तक निमज्जित हो रही। . .
एकाएक वह प्रचेतस् हुई।
· · · समाधीत हुई मैं, कृतकाम हुई मैं, परिपूरित हुई मैं। यज्ञ-पुरुष, परित्राता, तुम आ गये . . !
परम समाधान की मुद्रा में, पूर्ण जागृत, उद्ग्रीव होकर देवानन्दा ने चहुँ ओर निहारा · · दिखायी पड़ा : वह सिंह पर आरूढ़ सुवर्ण-पुरुष, हिरण्यवती को पार कर, क्षितिज को चीरता हुआ, क्षत्रिय-कुण्डपुर की ओर धावमान है।
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