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है ।
नहीं । मेरी देह का रोम-रोम आज 'ओम् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्या' हो उठा 'हे महातपस्, दर्शन दो : इस मध्याह्न में अपने समस्त तेज से मेरे अणुअणु को प्रतप्त और वल्लिमान कर दो।
• मैं कृतार्थ हुई : मेरी प्रार्थना प्रतिफलित हुई । सब दिनों से असाधारण है आज तुम्हारा उत्ताप । 'मुझे दहो, मुझे दहो । मुझे गहो : मुझे गहो बाहर से रुद्ध हो रहे हैं, मेरे तन, मन, इन्द्रियों के द्वार । मैं रह गयी हूँ, मात्र हवनकुण्ड । चेतो चेतो परमाग्नि, भस्म कर दो मेरे मांस- पिण्ड को प्रस्रवित होओ मेरे भीतर अखिल के संजीवन सोम बन कर ! मैं मुंदी जा रही हूँ, मैं निरस्तित्व हो रही हूँ !
'प्रचोदयात्' सविता दिन भर समरस तेज से जाज्वल्यमान रहे । साँझ होतेहोते घनघोर बादल घिर आये हैं । उनके गर्जन से वन-भूमियों में रोमहर्षण हो रहा है । धेनुओं को लेकर ऋषभ लौट आये हैं ।
आकर देखा, देवानन्दा उसी शिलातल पर मुद्रित नयन, ऊर्ध्वमुख, जानू सिकोड़ बैठी है। उसके ओठों पर अस्फुट-सी मुस्कान खिली हैं।
ऋषभ की उपस्थिति का बोध पाकर, देवी ने सहसा आँखें खोलीं । ' 'सारे दिन प्रचण्ड सूर्य के तेज में आतापना झेली है तुमने, देवा । तपे हुए सुवर्ण-सी तुम्हारी यह मुखश्री अपूर्व है, देवी! चल कर अब विश्राम करो।'
'आओ देवता, तुम आ गये ? अब पर्जन्य होकर प्रकट हुए हैं सविता । इनकी शीतल आर्द्रा के सिवाय और कहाँ विश्राम है ? '
'देवा, पर्जन्यों की इस जामुनी छाया में तुम्हारा मुख कैसे अनूठे मादंव से भर आया है । 'इतनी कोमल तो तुम्हें कभी नहीं देखा ! जैसे पुंडरीकिनी खिल आने को आतुर है !'
'जो है, उसे देखो आर्य !'
है' ।
'इन मन्द्र गभीर गरजते पर्जन्यों तले, इस तड़कती विद्युत् से, मेरे प्राण भयाकुल ' और तुम्हारे इस सौन्दर्य का पार नहीं ! आज जितना अकेला तो मैं कभी नहीं हुआ । भीतर चलो देवा ! '
'नहीं !
'आज अकेले ही रहना है, तुम्हें, मुझे । यही शुद्ध स्वभाव है । चरम विरह के तट पर ही, परम मिलन होगा, ऋषभ। इस विरह को सहो, इस
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