________________
२६
अनेकान्त
गोपायलिइंगरराय रज्जि।
सिवउ राइणा विहिय कज्जि । सहि णिव सम्माणे तोसियगु।
बुहयणहं विहिउ जं णिच्च संगु॥ कहणावल्ली वण धवण कंदु ।
सिरि 'प्रहरवाल कुल' कुमुयचन्दु ॥ सिरि भोपा' गामें हुवउ साहू ।
सपत्तु जेण धम्में लहाउ ॥ तहणाल्हाही' णामेण भज्ज ।
प्रइ सावहाण सा पुण्ण कज्ज॥ तहणंदण चारि गुणोहवास।।
ससिणिह जस भर पूरिय दिसास ॥ 'खेमसिह' पसिद्ध महि गरिठ्ठ ।
'महराज' महामइतकणि? ॥ 'मसराज' दुहिय जण मासऊर ।
पाल्हा' कुलकमलवियाससूर । एयह गरुवउ जो खेमसी।
वणियउ एच्च भव-भमण वी॥ तह "णिउरादे' भामिणि पउत्त ।
विण्णाण कलागुण सेणिजुत्त ।। पढमउ संघाहिबउ 'कमलसीह।
जो पयलु महीयलि सिवसमीह॥ णामेण 'सरासई तह कलत्त ।
बीड जि स सेविय पायभत्त । घउ विह दाणे पोणिय सुपत्त ।
मह णिसु विराय जिणणाह जत्त ॥ तहणंदण णामें 'मल्लिदासु'।
सो संपत्तउ सुहगह णिवासु । संघाहिव 'कमल' लहुब भाउ ।
णामेण पसिखउ 'भोयराउ' । तह भामिणि 'देवई' णाम उत्त।
विह पुत्तहि सा सोहई सउत्त। णामेण भणिउ गुरु चन्दसेण ।
पुणु 'पुणपालु' लहबउ परेण ॥ मत्ता-नय परियण जुतउ एच्छणित ।
कमलसीह संघाहिव चिर गंबर ॥
भावार्थ-गोपाचल में महाराज डूंगरसिंह राज्य करते थे। उनके राज्य में अग्रवाल वशोत्पन्न भोपा नामक साहु निवास करते थे । उनकी पत्नी णाल्हासे खेमसिंह, महाराज, असराज एवं पाल्हा नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए । खेमसिंह की णिउरादेवी (नोरादेवी) नामक पत्नी से कमलसिंह एवं भोजराज नामक पुत्र उत्पन्न हुए। कमलसिंह की दूसरी पत्नी सरस्वती से मल्लिदास नामक पुत्र एवं भोजराज की देवकी नामक पत्नी से चन्द्रसेन एवं पूर्णपाल नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। कमलसिंह संघवी का यही परिवार था।
महाकवि रइधू ने भट्टारक गुणकीर्ति एवं उनके पट्ट शिष्य भ० यशःकीर्ति की प्रेरणा से कई ग्रन्थो की रचना की है। कवि ने अनेक स्थानों पर उन्हें अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है। पहले तो ये दोनो भट्टारक सहोदर भाई थे किन्तु बाद मे गुरु-शिष्य हो गये थे। कवि ने उनका बड़ी ही श्रद्धा भक्ति के साथ उल्लेख किया है। यशःकीर्ति के विषय मे लिखा है:ताहं कमागय तवतवियंगो।
णिच्चम्भासिय पवयणसंगो।। भव्य-कमल-सरवोहपयंगो।
वंदिवि सिरि 'जसकिति' असगो।। सस्स पसाएं कव्वु पयासमि। चिर भवि विहिउ असुह णिण्णासमि॥
सम्मइ०१२३४-६ महाकवि रइधू के इन सन्दर्भो से यह स्पष्ट है कि उक्त मूर्ति लेख में पाये हुए पूर्वोक्त रेखांकित पद वस्तुतः डूंगरसिंह, काष्ठासंघ, माथूरान्वय, गुणकीतिदेव, यश:कोति रइष भाम्नाय, कमलसीह एवं कमलसिंह है । काञ्चीसंघ आदि पाठ पूर्णतः भ्रमात्मक हैं और इस प्रकार महाकवि रइधू के 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्व' की प्रशस्ति को सम्मुख रखकर उक्त मूर्ति लेख के अशुद्ध पढ़े गये पाठों को शुद्ध किया जा सकता है। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन करने से निम्न निष्कर्ष सम्मुख पाते हैं :
१.तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह के राज्यकाल में गोपाचल दुर्ग की ५७ फीट ऊंची प्रादिनाथ की मूर्ति का निर्माण एवं प्रतिष्ठा वि० सं० १४६७ की वंशाख ...सप्तमी शुक्र