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तीर्थरों की प्राचीनता
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मान्यता का अनुशरण ही परवर्ती काल में किया गया था। तिया ऋषभ मूर्ति के पूर्व रूप है"। ये प्राकृतिया
जैन तीर्थहरों में प्रथम प्र प्रादिनाथ को योग कायोत्सर्ग प्रासन में हैं तथा यह प्रासन खास तौर से विद्या का प्रारम्भकर्ता एवं समस्त क्षत्रियों का पूर्वज जैनों का होने के कारण भी यह कथन उपयुक्त प्रतीत बताया गया है"। जनदर्शन में भी स्पष्ट कथन मिलता होता है। है कि जिस समय आदिनाथ जन्मे थे उस समय कोई वर्ण कतिपय अन्य शीलोका अध्ययन कर स्व. बा. कामताव्यवस्था न थी किन्तु जब उन्होंने प्रजा की रक्षा द्वारा प्रसाद जी ने भी अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है अपनी आजीविका करना निश्चित कर लिया तब वे स्वय कि इन मुद्रामों पर ऊपर की ओर जो छ नग्न योगी हैं। को क्षत्रिय वर्ण का कहने लगे थे। आजीविका के आधार वे ऋषभ मन के योगी है जिन्होंने अहिंसा का उपदेश पर क्षत्रिय, वैश्य और शद्र, तीन भागों में मनुष्य को दिया है। जैन पुराणों में छ चारण योगी प्रसिद्ध हैं, जो पाप ने ही विभाजित किया था। इस प्रकार जैन साहित्य यादव राजर्षि थे"। से भी प्रादिनाथ समस्त क्षत्रियों के पूर्वज ज्ञात होते है। डा. दिनकर ने भी लिखा है कि मोहनजोदड़ो की
खदाई में योग के प्रमाण मिले है। उनका कथन है जनइसी प्रकार उनके योगी होने के प्रमाण भी पुरा
मार्ग के प्रादि तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे जिनके माथ योग तात्विक सामग्री से उपलब्ध हो जाते है। मोहनजोदडो से
और वैगग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है, जैसी साढ़े पांच हजार वर्ष पुरानी वस्तुएं खुदाई से प्राप्त हुई
कालान्तर में, वह शिव के साथ समन्वित हो गयी। इस हैं। उनमे प्लेट संख्या २ की ३ से ५ तक की सीलो पर
दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्ति युक्त अकित योगी प्राकृतियों का अध्ययन कर प्रो. रामप्रसाद
नहीं दीखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी, चन्दा ने लिखा है कि ये एक योगी के आसन की मुद्राएं।
वेद पूर्व है"। है। उन्होंने इन योगी-प्राकृतियो की तुलना जिन
___ इस प्रकार न केवल पुरातात्विक सामग्री से ही यादिमूतियो से करके, यह भी घोषित किया था कि ये प्राकृ
नाथ प्रथम योगी ज्ञात होते है अपितु साहित्यिक उल्लेखों ४३. "श्री आदिनाथाय नमोस्तु तस्मै, येनोपदिष्टा हठयोग
से भी यही प्रकट होता है कि नाभि पुत्र ऋषभ ने योग
चर्या समादृष्टा के रूप में धारण की थी। इस प्रकार विद्या" क्षु० पावकीति बर्णी; विश्वधर्म की रूपरेखा : वीर सं० २४२५, जैन साहित्य सदन, चाँदनी चौक,
सैन्धव-कालीन पुगतात्विक मामग्री से यह प्रमाणित हो दिल्ली, पृ० २३ । एत्र देखिए :-(ब) सन्मति
जाता है कि आदिनाथ का अस्तित्व बहुत प्राचीन कालीन सन्देश, ५३५, गांधीनगर देहली-३१, जुलाई १९६६
है। वे बहुतप्राचीन समय से जैनियो के प्राराध्य देव रहे
है। एक प्राचीन-उदयगिरि (उड़ीसा) से प्राप्त, हाथीपृ० ४-५। ४४. नाभिस्त्वजनयत्पुत्र मरुदेव्यां महाद्युतिम् ।
४७. माडन-रिव्युः प्रकाशन-अगस्त १९३२ ई० । ऋषभ पार्थिवश्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।।
४८. जैनधर्म और तीर्थंकरो की ऐतिहासिकता एवं प्राचीवायु-पुराण : म० ३३, श्लोक ५० ।
_____नता ट्रेक्ट संख्या ६८, वही, पृ० ११-१२ । ४५.५० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री; जैनधर्म और व्यवस्था : ४६. डा. गमधारीसिंह "दिनकर" सस्कृति के चार
भारतवर्षीय दि. जैन परिषद् दरीबाकला, दिल्ली, अध्याय : उदयाचल, राजेन्द्रनगर, पटना-४, चतुर्थ पृ०६।
मस्करण १९६६ ई० पृ० ३६ । ४६. उत्पादितस्त्रयो वर्णस्तदातेनादिवेघसा क्षत्रिया : वणि- ५०. नाभेरसौ ऋषभ प्राप्तसुदेवसूनुः ।
जः शूद्रा: क्षतत्राणादिभिर्गुण ॥१८३॥ प्राचार्य जिन- यो व चचार समदृग योगचर्याम् ॥ सेन ; प्रादिपुराण : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, दि. भागवत पुराण : स्कन्ध-द्वितीय, अध्याय ७, पृ. ३७२, सं० १९६३ ई०, भाग-१, पर्व १६, पृ० ३६२ । इलोक १०।