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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
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ऋगवेद के गान किसी दृष्टि से लोक-काव्य नहीं कहे सम्बन्ध नही है। उनमें यज्ञ ने एक चमत्कारी मंत्र को जा सकते है। उनका उद्भव, अधिकाशतः, ब्राह्मण वर्ग रूप ले लिया है कि जिसके द्वारा देवगण यज्ञकर्ता की में ही हया था। माहवानित देवतामो के कृपापात्र एवं सांसारिक पाकाक्षाएं पूर्ण करते हैं, और इसीलिए उसके जटिल यज्ञ-याज्ञो परम्परा के रक्षक के रूप में ये ब्राह्मण रिपुत्रों को दुःख और कष्ट भोगना पड़ता है। किसी सदा ही, जन साधारण में रहते हुए भी. उनसे ऊपर यज्ञविधि को और उसकी प्रभावकता को स्पष्ट करने, उठने का प्रयत्न करते रहे हैं । इसलिए न तो वे लोक देवो की महानता और उनकी वदान्यता का यशोदान परम्पराओं के प्रभाव से ही बिल्कुल अछूते रहे है और करने, प्राचीन वीरो के कोर्तिगान करने और ब्राह्मणों का न जन साधारण के प्राश्रय-विहीन ही। वैदिक काव्य मे महत्व लोक मानस पर जमाने के लिए प्राचीन ग्राख्यान, वर्णन योग्य अनेक मनोरजक कथाए सुरक्षित है । उदाह- पुरावृत्त, और सिद्ध पुरुषों की जीवनियाँ यहाँ वहाँ उनमें रणार्थ हमें जहां यह बताया गया है कि युद्धप्रिय इन्द्र वृत्र वर्णित हैं । ब्राह्मणों के स्वार्थ और यज्ञधर्म से स्पष्ट समान राक्षसों का संहार और अंधकार एव अवर्षा का सम्बन्धित होते हुए भी इन कहानियों में से कुछ में लोकनिवारण कैसे करता है। फिर देवों की सहायता करने परक तत्व भी है। पुरुरवस और उर्वशी का पुरावृत्त वाले अश्विनी कुमारो की अनेक पौराणिक आख्यायिकाएं हरिश्चन्द और यज्ञ के शिकार शुन्शेप की कहानी, प्रजाभी वहा गई है। जिसे यज्ञानुष्ठान का विशुद्ध ज्ञान है पति को जीवनी वर्णनात्मक दृष्टि से निःसन्देह मनोरंजक ऐसे प्राचार्यों के वशीभूत ये सब देव होते है इस प्रकार ये है। प्राधारभूत कथा का केन्द्रबिन्दु किसी यज्ञानुष्ठान ब्राह्मण जन-साधारण की समृद्धि की पुरस्कर्ता अनेक की प्रशसा और पौचित्य प्रादि की स्थापना के लिए दिव्यात्माओं की श्लाघा-प्रशंसा करते हुए, न केवल अपनी वणित विवरण-प्रचुर कथा में से खोज निकालना निःसं. ही शक्ति बढाते है अपितु यश-धर्म को भी फैलाते है। देह कठिन है। अनेक दृष्टियों वाले महाकाव्यों की प्रादि तथाकथित पाख्यान-ऋचाएं ऐसे प्राचीन पौराणिक गीत का वस्तुतः, ब्राह्मणों के इस वर्णनात्मक स्तर से भी पूर्व ही हैं कि जिनमें वर्णनात्मक और नाटकीय तत्व भी है। की है। इन्ही में हमें पुरुरवस और उर्वशी का संवाद, यम और जब हम उपनिषद काल मे प्रवेश करते है तो वहाँ यमी का तीव्र वाद-विवाद मिलता है । पहला प्रसग तो हमे एक भिन्न संसार ही का परिलक्षण होता है। उपउत्तरकालीन भारतीय साहित्य में अनेक जटिल रचनाओं निषदों की बौद्धिकता के काल में, ब्राह्मण प्राचार्य पीछे द्वाग प्रमर ही कर दिया गया है । इसकी दान स्तुतियों पडता जाता है और क्षितिज एक दम नया दिखाई पड़ता में ब्राह्मणों को उदार चित्त से दान देने वाले दातागो की है। धर्मशास्त्र में ऐक्य की ध्वनि, जड यज्ञों की निरर्थकता अतिशय प्रशंसाएं सुरक्षित है। और यह बहुत ही सम्भव और ब्राह्मण-प्राचार्यों का सर्वज्ञान एकाधिकार, प्रचलित है कि यज्ञो के इन संरक्षकों में से कुछ ऐतिहासिक व्यक्ति सामाजिक अयोग्यताओं को निवारण कर उच्चतम ज्ञान भी हों। परन्तु यह दुर्भाग्य की बात ही है कि नाम के प्रति- -प्राप्ति की जनाकुलता , देवों के कोप या प्रसाद से रिक्त उनके विषय में हमे और कुछ भी ज्ञात नही है। नही अपितु स्व-कर्म और जन्मानुमार सांसारिक विषमता
जब हम ब्राह्मणों को, जिनमें कि ईश्वरवाद और के व्याख्याकरण का प्रयत्न, उच्चतर ज्ञान एवं वैराग्ययज्ञवाद के सम्बन्ध में ब्राह्मणों में होने वाले वृथा वाद- साधनानुसरण द्वारा शनैः शनैः यज्ञ एवं दान का उच्छेद, विवाद का शुष्क वर्णन ही है, देखते है तो मानव उप- समाज के एक सदस्य रूप मानवाचरण के लिए बारम्बार उपयोग की प्रधान बात उनमें यही हमे मिलती है कि नैतिक-धामिक उपदेशों का प्रयोग, ये ही उपनिषदों की उनमे अनेक पुरावृत्त और सिद्ध. पुरुषों की जीवनियां दी प्रमुख धाराओं में से कुछ धाराएं हैं जो उपनिषदों को हुई है । उनमे धर्म और अनुष्ठान की भी अनेक बातें ब्राह्मणों से पृथक् कर देती है । विचारधारा में इस नवीकही हुई हैं कि जिनमें नैतिकता या सदाचार से कुछ भी नता की प्रादि की व्याख्या करते हुए, विण्टरनिट्ज कहते