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राजस्थान के जैन सन्त मुनि पद्मनन्दी
जैन मूर्ति लेख ) प्राचीन जैन लेख संग्रह पृ० ३८ । ऐतिहासिक घटना
भ० पद्मनन्दि के सान्निध्य में दिल्ली का एक संच गिरनार जी की यात्रा को गया था। उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय का भी एक सघ उक्त तीर्थ की यात्रार्थ वहाँ आया हुआ था। उस समय दोनो संघो मे यह विवाद छिड़ गया कि पहले कौन वन्दना करे। जब विवाद ने तूल पकड़ लिया और कुछ भी निर्णय न हो सका तब उसके शमनार्थं यह युक्ति सोची गई कि जो संघ पाषाण की सरस्वती से अपने को 'आद्य' कहला देगा वही सघ पहले यात्रा कर सकेगा । अतः भट्टारक पद्मनन्दि ने पापाण की सरस्वती देवी के मुख से 'प्राय दिगम्बर' कहला दिया, इसमे विवाद के सुलझने में उस समय सहायता मिली। चूंकि इस विवाद का निर्णय मुनि पचन के द्वारा हु था । पद्मनन्दि ने पापाण की सरस्वती देवीक मुख से आय दिगम्बर' शब्द कहला कर दिगम्बर पहने है अतः वे पहले ऊर्जयन्त गिरि की यात्रा करें। ऐसा निश्चित होने पर दिगम्बरों ने पहले तीर्थ यात्रा की अगरान नेमिनाथ की भक्ति पूजा की । उसके बाद श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने । उसी समय से बलात्कार गण की प्रसिद्धि मानी जाती है। बे पद्य इस प्रकार है:
पद्मगुरु
बलात्कारगणाग्रणी पायाणघटिता येन वादिना श्री सरस्वती ॥ ऊर्जयत गिरौ तेन गच्छः मरस्वतौऽभवत् ।
अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नम श्रीपद्यनन्दिन ॥ यह घटना ऐतिहासिक है जो पद्मनन्दि के साथ घटित हुई है । पद्मनन्दि नाम साम्य के कारण कुछ विद्वानो ने कुन्दकुन्दाचार्य से इस घटना का सम्बन्ध जोड दिया था। वह गलत है । यह घटना प्रस्तुत पद्मनन्दि के समय घटी है । इससे भ० पद्मनन्दि के मत्र-तत्रवादी होने की पुष्टि होती है।
रचनाएं
भ० पद्मनन्दि की अनेक रचनाएं होगी, जिनमें देवशास्त्र, गुरुपूजन संस्कृत, सिद्धपूजा संस्कृत धौर दो तीन रचनाएँ इन्ही पद्मनन्द की हैं या अन्य पद्मनन्दि की, यह विचारणीय है। इन रचनाओं में पद्मनन्दि के अतिरिक्त
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प्रभाचन्द्र का कोई उल्लेख नही है। जब कि अन्य रचनाओं मे प्रभाचन्द्र का भी उल्लेख उपलब्ध होता है । ऐसी रचनाएं श्रावकाचारसारोद्धार, वर्धमान काव्य, जीरापन्ति पार्श्वनाथ स्तोत्र मोर भावना चतुविशति ।
श्रावकाचार सारोद्वार संस्कृत भाषा का पद्यबद्ध ग्रंथ है उसमे तीन परिच्छेद है जिनमे धावकधर्म का विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ के निर्माण मे प्रेरक लंब कचुक कुलान्वयी (लमेच वंशज) साहू वासाघर' है । उनके पितामह का भी नामोल्लेख हुआ है । जिन्होने
'सूपकारसार' नामक ग्रंथ की रचना की थी। यह ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है, विद्वानो को उसका अन्वेषण करना चाहिए। इस ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति मे साहू वासाघर के परिवार का अच्छा परिचय कराया गया है। और बतलाया गया है कि गोकर्ण के पुत्र सोमदेव जो राजा अभयचन्द श्रोर जयचन्द के समय प्रधानमन्त्री थे । सोमदेव की पत्नी का नाम प्रेमसिरि था उससे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे । वासाघर, हरिराज, प्रहलाद, महराज, भवराज, रतनारव्य, और सतनारव्य । इनमे ज्येष्ठ पुत्र वासाघर सबसे अधिक बुद्धिमान, धर्मात्मा और कर्तव्यपरायण था इसकी प्रेरणा और प्राग्रह से ही मुनि पद्मनन्द ने उक्त श्रावकाचार की रचना की थी। वासाधर ने चन्द्रवाड में एक जिन मन्दिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठा विधि भी सम्पन्न की थी। कवि धनपाल के शब्दों में वासाघर सम्यकत्वी, जिन चरणों का भक्त जैन धर्म के पालन में तत्पर, दयालु, बहुलोक मित्र, मिध्यात्व रहित तथा विशुद्ध वित्त वाता था। भ० १ श्रीग्यकेनुकुल पद्य विकासभानुः, सोमात्मजो दूरितदारुचयकृशानुः धर्मसाधन परो भुविभव्य वन्धुवासावरो विजयते गुणग्रन सिन्धुः
बाहुबली पारित सचि ४ २. जिणणाह चरण भत्तो जिणधम्मपरो दयालोए । सिरि सोमदेव तणो णंद बामणिच ।। सम्मत्त जुतो जिणपाय भत्ता दयालु रतो बहुतोय भिसो मिच्छत्तचतो सुविसुद्ध वितो वासाधरो मंद पुण्णवित्तो ॥ बाहवली चरित सं० ३