Book Title: Anekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 305
________________ २८४, वर्ष २२ कि०६ अनेकान्त कबहमा है? कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि शिष्य थे ही, किन्तु प्रापके अन्य तीन शिष्यों से भट्टारक पद्मनन्दी भट्टारक पद पर १४६५ तक रहे हैं । इस सम्बध पट्टों की तीन परम्पराएं प्रारम्भ हुई थी, जिनका प्रागे में उन्होंने कोई पुष्ट प्रमाण तो नही दिया, किन्तु उनका शाखा प्रशाखा रूप में विस्तार हुआ है । भट्टारक शुभचन्द्र केवल वैसा अनुमान मात्र है। प्रतएव इस कयास मे कोई दिल्ली परम्परा के विद्वान थे। इनके द्वारा 'सिद्धचक्र' की प्रामाणिकता नही है। क्योंकि संवत् १४७३ की पद्मकीर्ति कथा रची गई है। जिसे उन्होंने सम्यग्दष्टि जालान के पार्श्वनाथ चरित की लिपि प्रशस्ति से स्पष्ट जाना जाता लिए बनाई थी। भ. सकलकीति से ईडर की गद्दी की है कि पपनन्दि उस समय तक पट्ट पर विराजमान थे। स्थापना हुई थी। चूकि पद्मनन्दी मूलसघ के विद्वान थे, जैसा कि उक्त प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है :- अत: इनकी परम्परा में मूलसंघ की परम्परा का विस्तार ___"कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री रत्नकीर्तिदेवास्तेषा । हुआ। पद्मनन्दि अपने समय के अच्छे विद्वान, विचारक पट्टे भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेवा तत्पट्ट भट्टारक श्री पद्म- और प्रभावशाली भट्रारक थे। भ० सकलकीर्ति ने इनके नन्दिदेवास्तेषां पट्ट प्रवर्तमाने।" पास आठ वर्ष रहकर छन्द, काव्य, व्याकरण, कोष, धर्म (मुद्रित पार्श्वनाथ चरित्र प्रशस्ति) दर्शन, साहित्य और कला आदि का ज्ञान प्राप्त किया था इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे दीर्घ जीवी थे। और कविता में निपुणता प्राप्त की थी। भट्टारक सकलपट्टावली में उनकी प्राय निन्यानवे वर्ष अट्राईस दिन की कीर्ति ने अपनी रचनायो में उनका सम्मानपूर्वक उल्लेख बतलाई गई है। और पटकाल ६५ बर्ष पाठ दिन किया है। पद्मनन्दि केवल गद्दीधारी भट्टारक ही नही थे, बतलाया है। अपितु जैन सस्कृति के प्रचार एव प्रसार मे सदा तन्मय यहाँ इतना और प्रकट कर देना उचित जान पडता रहते थे। है कि वि० सं० १४७६ में प्रसवाल कवि द्वारा रचित पद्मनन्दि प्रतिष्ठचार्य भी थे। इनके द्वारा विभिन्न 'पासणाह चरिउ' में पचनन्दि के पद पर प्रतिष्ठित होने स्थानों पर अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई थी। जहा वाले शुभचन्द्र का उल्लेख निम्न शब्दों में किया गया है- वे मत्र-तंत्रवादी थे वहा वे प्रत्यत विवेकशील और चतुर 'ततो पट्टवर ससिणामें, सुहससिमुणिपय पंकम चंदहो।' थे। आपके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तिया विभिन्न स्थानो के चंकि सं० १४७४ में पचनन्दि द्वारा प्रतिष्ठित मतिलेख मन्दिरों में पाई जाती है। पाठकों की जानकारी के लिए उपलब्ध है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पद्मनन्दि ने दो मूर्तिलेख नीचे दिए जाते हैं:सं० १४७४ के बाद और सं० १४७६ से पूर्व किसी आदिनाथ-प्रों संवत १४५० वैसाख सुदी १२ समय शुभचन्द्र को अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया था। गूरी श्री चाहुवाण वंश कुशेशय मार्तण्ड सारवै विक्रमन्य ___ कवि मसवाल ने कुशात देश के करहल नगर मे श्रीमत सरूप भूपान्वय कुडदेवात्मजस्य भूषज शक्तस्य श्री सं० १४७१ में कवि हल्ल या जयमित्र हल्ल द्वारा रचित सुवसृपथैः राज्ये प्रयर्तमाने श्री मलसंघे भ. श्रीप्रभाचन्द्र सुवसृपथः राज्य प्रयतमान श्रा मूलसघ 'मल्लिणाह' काव्य की प्रशंसा का भी उल्लेख किया है। देव तत्प? श्री पद्मनन्दि देव तदुपदेशे गोला राडान्वये ..। उक्त ग्रंथ भ. पद्मनन्दि के पट्ट पर प्रतिष्ठित रहते हुए (भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ६२) उनके शिष्य द्वारा रचा गया था । कवि हरिचन्द ने २ अरहंत-हरितवर्ण कृष्णमूर्ति-सं० १४६३ वर्षे अपना वर्षमान काव्य भी लगभग उसी समय रचा था। माघ सुदि १३ शुके श्री भूलसंघे पट्टाचार्य श्री पद्मनन्दि इसी से उसमें कवि ने उनका खुला यशोगान किया है- देवा गोलाराडान्वये साधु नागदेव सुत......। (इटावा के 'पद्मणंदि मुणिणाह गणिदह, चरण सरणु गुरु कइ हरिइंदहु।' ३ श्री पचनन्दी मुनिराज पट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्र देवः । (वर्षमान काव्य) श्रीसिद्धचक्रस्य कथाऽवतारं चकार भव्यांबुज । मापके अनेक शिष्य थे, जिन्हें पद्मनन्दि ने स्वयं शिक्षा भानुमाली ॥ देकर विद्वान बनाया था। भ० शुभचन्द्र तो उनके पट्टधर -(जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० भा०१पृ०८८)

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