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नरेन्द्र सेन के० भुजबलो शास्त्री विद्याभूषण
श्रीमान प०दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित सम्बन्ध में शिवमोग्गा जिलान्तर्गत नगर तालका केहोंतज 'माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थ माला के ४७वे ग्रन्थ के ३५वे शिलालेख मे "राजमल्ल-देवगे गुरुगले निसिद के रूप में प्रकाशित 'प्रमाण प्रमेयकलिका' नामक संस्कृत कनकसेन भट्टारकर वरशिष्यर शब्दानुशासनक्के प्रक्रियेयेन्द्र न्यायग्रन्थ प्राचार्य नरेन्द्रसेन के द्वारा रचित है। इस ग्रन्थ रूपसिद्धिय माडि दयापालदेवरू" यह उल्लेख मिलता है। की प्रस्तावना में कोठिया जी ने ७ नरेन्द्रसेनो का उल्लेख इस शिलालेख का काल ई० सन् १०५० है । इसमे प्रतिकिया है। इनमें से प्रथम और द्वितीय नरेन्द्रसेन एक पादित दयापाल और न्यायविनिश्चयविवरण की प्रशस्ति व्यक्ति, तृतीय नरेन्द्रसेन एक व्यक्ति, चतुर्थ पचम षष्ट में प्रतिपादित दयापाल एक ही व्यक्ति ज्ञात होते है । ऐसी नरेन्द्रसेन एक व्यक्ति और सप्तम नरेद्रसेन एक व्यक्ति परिस्थिति मे दयापाल वादिराज और नरेन्द्रसेन ये तीनों कहे गये है। इस प्रकार चार नरेन्द्रसेनो का नामोल्ने ख समकालीन मालम होते है। करके इनमे से अन्तिम अर्थात् सप्तम नरेन्द्रमन को प्रमाण
अब नरेन्द्रसेन से सम्बन्ध रखने वाले शिलालेख को प्रमेय कलिका का रचयिता मानकर इनका समय शक स० देवे । धारवाड जिलान्तर्गत गदग तालुक, मुलगंद के ई० १६७३ वि.सं.१८०८ बतलाते हए इन्ही को कोठियाजी ने सन् १०५३ का शिलालेख नरेन्द्रसेन के शिष्य नयसेन के उपयुक्त न्यायग्रन्थ का प्रणेता निर्धारित किया है। सम्मुख लिखवाया गया दानशासन है। इसमें नरेन्द्रसेन
कोठियाजी ने प्रथम नरेन्द्रसेन के सबध में अपनी को वैयाकरणी बतलाया है । वह पद्य इस प्रकार है : प्रस्तावना मे लिखा है कि वादिराजसूरि रचित 'न्याय
चाद्र कातत्र जनंद्र शब्दानुशासन पाणिनी म । विनिश्चय विवरणातर्गत अन्तिम प्रशस्ति के विद्यानन्द- जैन्द्र नरेन्द्रसेनमुनीन्द्रगेकाक्षर पेरगिवु भोग्गे।। मनतवीर्यसुखदम्' इस द्वितीय पद्य मे बादिराज ने विद्यानंद, इस शिलालेख में गुरु नरेन्द्रसेन के साथ शिष्य नयरोन अनंतवीर्य, पूज्यपाद, दयापाल, सन्मतिसागर (मतिसागर) की बड़ी प्रशसा है। शिलालेख मे नयसेन को "समस्तकनकसेन और स्वामी समंतभद्र-सदृश समर्थ प्राचार्यों की शब्दशास्त्रपारावारपारंगत" बतलाया है। इसमे चालुक्य पक्ति मे नरेन्द्रसेन का नाम उल्लेख करके उनकी निर्दोष राजा लोक्यमल्ल प्रथम रामेश्वर के सधिविग्रही एवं नीति को भक्ति से स्मरण किया है। साथ ही साथ इस नयसेन के शिष्य बेल्देव के प्रार्थनानुसार शिंद कंचरस के सम्बन्ध मे दूसरा कोई साधन प्राप्त न होने के कारण द्वारा मुलगुद जिनालय को प्रदत्तदान का विस्तृत वर्णन कोठियाजी ने वादिराज द्वारा ही रचित पाश्र्वनाथचरिता- है। पूर्वोक्त नयसेन ने कन्नड मे २४ प्राश्वासो से युक्त र्गत प्रशस्ति मे प्रतिपादित शक वर्ष ६४७ (ई. सन् 'धर्मामत' नामक एक कथा प्रथ की रचना की है। बल्कि १०२५) को उधत करते हुए न्यायविनिश्चयविवरण की यह ग्रन्थ हिन्दी में अनुवादित होकर पारा से प्रकाशित भी प्रशस्ति में उल्लिखित नरेन्द्रसेन को वादिराजसूरि से पूर्व- हो चुका है । नपसेन भी गुरु नरेन्द्रसेन की तरह वैयाकरणि वर्ती बतलाया है। पर वादिराज की प्रशस्ति मे प्रतिपादित थे। पर उनका व्याकरण अभी तक उपलब्ध नही हुमा है। सभी विद्वानों को वादिराज से पूर्ववर्ती मानना युक्तिसगत तो भी सस्कृत में 'भाषाभूषण' नामक कन्नड व्याकरण को नहीं होगा । क्योंकि उनमे से कम से कम कतिपय विद्वान रचने वाले द्वितीय नागवर्म (ई० सन् लगभग १२४५) ने अवश्य उनके समकालीन भी रहे होंगे।
अपने इस व्याकरण ग्रन्थ के ७४वे सूत्र में 'दी|क्तिनंय. वादिराज के गुरु, कनकसेन के शिष्य दयापाल के सेनस्य' इस रूप मे नयसेन का उल्लेख अवश्य किया है ।