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संस्कृत सुभाषितो में सज्जन-दुर्जन
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नाये 'सुभाषित' के नाम से जनश्रुति-प्रवाह मे बहती पाई प्रथम वयसि पीत तोयमल्पं स्मरन्तः, है। सुभाषित शब्द का अर्थ है 'सुष्ठु भाषितम्' अर्थात् शिरसि निहित भारा नारिकेला नराणाम् । सुन्दर ढग से कहा हुमा। अतएव सुभाषित शब्द से उन उदकममृतकल्प दद्युराजीवितान्तम्, समस्त रचनायो का निर्देश होता है, जहाँ एक फुटकर न हि कृतमपकारं साधवो विस्मरन्ति ।। पद्य में किसी विषय का सरस प्रतिपादन किया जाता है।
सज्जन पुरुष ही सज्जनो की आपत्ति को दूर करने इनमे से अधिकाश नीति के बोधक होते है । मुभाषितों के में समर्थ है। कीचड में फंसे हुए हाथियों को निकालने मे भी ममह मिलते है। सुभापितों को स्मरण किये बिना तो
श्रेष्ठ हाथी ही समर्थ है, अन्य नही। इस हृदयस्थ भाव मस्कृत भाषा-माहित्य का अध्ययन-अध्यापन अपूर्ण ही
को एक कवि ने यो व्यक्त किया है। रहता है। सच तो यह है कि मुभापितो में जीवनदायी
सन्त एव सतां नित्यमापदुद्धरण क्षमाः । अनुभूतियो के तत्व विखरे है।
गजानां पंकमग्नानां गजा एव घुरन्धराः॥ इसलिए संस्कृत भाषा और सुभापितो के सम्बन्ध में
मज्जनी की सगति का प्रभाव अमोघ होता है। वह एक मुकवि ने जो बात कही है, वह शत प्रतिशत सही है।
पूरुषो के लिए क्या नहीं करती? सभी कुछ यथासंभव भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाण भारती।
करती है। सत्सगति, बुद्धि की जडता दूर करती है, वाणी तस्माद्धि काव्यं मधुर तस्मादपि सुभाषितम् ॥
मे सत्य वा सचार करतो है। सम्मान और उन्नति को भाषामो मे मुख्य और मधुर देव-वाणी (संस्कृत
देती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है भाषा) है और उसमे भी काव्य मधुर है तथा उससे भी
और दशो दिशामो में कीति का विस्तार करती है। यह सुभाषित मधुर सुखद है।
बात एक कवि के शब्दो मे यो स्मरण कीजियेगासज्जन
जाड धियो हरति, सिञ्चति वाचि सत्यम् । सज्जनो में पाये जाने वाले गुणो का समावेश प्रस्तुत ।
मानोन्नति दिशति, पापमपाकरोति ।। श्लोक मे हुया है। विपदि घर्यमथाभ्युदये क्षमा,
चेत: प्रसादयति, दिक्षु तनोति कीतिम् । सदसि वाक्यटुता यधि विक्रमः।
सत्सगतिः कथय कि न करोति पुंसाम् ॥ यशसि चाभिरतियसनं श्रतो,
सच तो यह है कि सज्जन पुरुष पुण्य और पीयूष से प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।।
परिपूर्ण होते है । वे तीनो लोको का उपकार कर प्रसन्न सज्जन पुरुष विपत्ति में धंयवान् और सर्वतोमुखी होते है । दूसरो के परमाणु जैसे गुणो को पहाडो के रूप अभिवद्धि में क्षमाशील होते है। वे सभा में उच्चकोटि के मे देखने का स्वभाव होता है अतएय अपने मन ही मन में देवता होते हैं और युद्ध क्षेत्र में अद्वितीय साहसी । यश के प्रतीव स्वस्थ और सन्तुष्ट रहने वाले राज्जन पुरुष कैसे लिए उनकी लालमा होती है और शास्त्र-श्रवण, तत्वचर्चा होते है ? यह कह सकना अब सम्भव ही नही रह गया मे सुरुचि । यह मज्जनों का जन्मसिद्ध अधिकार है। है। यह बात एक कवि ने यों कही है___ मज्जनों का स्वभाव नारियल के समकक्ष होता है। मनसि वचसि काये पुण्यपीयष पूर्णाः, जैसे प्रारम्भिक अवस्था में पिलाये गये पानी को जटामों त्रिभुवन उपकारणिभिः प्रोणयन्तः । का बोझ धारण करने वाला नारियल नहीं भुला पाता है।
परगुण परमाणून पर्वतीकृत्य नित्यम्, और बदले में जीवन भर अमृत तुल्य पानी देता है, वैसे
निजहृदि विकसन्तस्सन्ति सन्त. कियन्तः॥ ही सज्जन पुरुष भी कभी किसी के उपकार को भूलते नहीं हैं। यह बात सस्कृत के एक सुकवि ने इस प्रकार
दुर्जन कही है
सज्जन के विरोधी दुर्जन मे कौन-कौन से गूण पाये