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२१०, वर्ष २२ कि.६
मानकर उसमें मासक्त रहने वाला मनुष्य, उनसे उत्पन्न ष्टता, श्रेष्ठ तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, संयम और होने वाले दुखों को शान्त नहीं कर पाता है। प्रतः शारी- विनय के लिए ब्रह्मचचर्य को अपनाना पावश्यक बताया है। रिक मोर मानसिक दुखों से पीड़ित वह दुख चक्र में ही
महावीर स्वामी ने संसार के प्राणियों की मनोदशा भटकता रहता है।
का अवलोकन कर कहा 'मैं और मेरा' इस मन्त्र ने सम्पूर्ण जो लोगस्सेसणं चरे। प्राचारांग सूत्र ।
विश्व को अन्धा बना दिया है, जब कि यह मन्त्र स्वयं मानव विवेकी बने । देखा-देखी नहीं करे।
बहुत कष्टदायी पौर प्रशान्ति का कारण है । अनासक्त उन्होंने कहा
भाव रखने से प्रत्येक स्थिति में सुख मिलता है। 'अप्पाणमेव प्रप्पाण, जइत्ता सुहमेह ए।'
म. महावीर ने धर्म का सार्वभौम रूप विश्व के (उत्तराध्ययन सूत्र ६.३५)
समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने समझाया कि-धर्म वह है स्वयं ही स्वयं को जीतने से सच्चे सुख की उपलब्धि
जिससे अपना और सबका कल्याण हो, विकास हो, उत्पा हो सकती है। अतएव प्रात्मनिग्रह के लिए प्रयत्न करना
हो । मानव अपनी इच्छाप्रो को वश में रखे । उससे स्वय चाहिए।
सुखी होवे और दूसरो को भी सुखी होने का अबसर 'बहुयं मा य मालपेत् ।'
प्रदान करे। उन्होंने बताया कि भोगों का उपभोग करना पावश्यकता से अधिक नहीं बोलें । क्योंकि बहुत से दूरा नही है. बरा है उनमें प्रासक्त हो जाना। मिठाई विवाद, कलह प्रादि ज्यादा और अनावश्यक बोलने से
खाने से मुह अवश्य मीठा होता है किन्तु मात्रा से अधिक ही होते हैं। यदि, इस सदर्भ में भ. महावीर के इस
खाने से अजीर्ण के साथ साथ कीडे भी पड़ने लगते है।
खाने से सन्देश पर विचार करें तो सहज ही वर-भाव, विद्वेष और भोगों पर नियंत्रण रखने से जीवन, सुखी, स्वस्थ और कलह पादि के कारणों का विनाश हो सकता है।
समृद्ध हो सकता है। उनके सन्देश में विश्व-कल्याण की मपुच्छिम्रो न भासेज्जा, भासभाणस्स अन्तरा। सामर्थ्य है। उनका जीवन, उनकी वाणी और सन्देश चिट्ठिमंस न खाएज्जा, मायामोस विज्जए।।
युग-युगों तक जनता का कल्याण करते रहेंगे। -दशवेकालिक ८-४६ ।
भगवान महावीर ने अपने सन्देश मैं अहिंसा, सत्य, विना पूंछे उत्तर न दे। दूसरों के बीच में नहीं बोले। अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर बहुत बल दिया। पीठ पीछे किसी की निन्दा न करे। और बात करते समय
त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार छल कपट भरे भोर झूठे शब्दों का प्रयोग नही करना
उनके प्रवचनों का सार है। आज का संत्रस्त विश्व धन्य चाहिए।
हो जावे यदि वह भगवान महावीर इस छोटे-से सन्बेश भदत्तादान (चोरी की वस्तु) अनेक प्रकार के कष्टों को अपना ले, जिसके अनुसार संसार के छोटे-बड़े सभी की जड़ है । निन्दनीय है। मरण, भय, अपयश मादि का प्राणी हमारे ही समान है। कारण तो है ही । मतः मालिक की प्राज्ञा के बिना किसी
उहरे व पाणे बुढ़े व पाणे । दूसरे की वस्तुएं ग्रहण न करें। उन्होंने सामाजिक सलि
ते मान्यो पास सब्बलोए॥
संतोषी सुखी है अनन्त माशालताओं से बाग सरसन्न हो रहा है। प्रसीमित इच्छाएँ मा-मा कर अपनी-अपनी कामनामों का ढेर लगा रही हैं। बेचारा पथिक उनकी पूर्ति में जीवन की बाजी लगा रहा है। पर, इच्छा पूर्ति न होने से दुखी है। जो सन्तोषी है वह सुखी है, जो पाशामों के वास हैं वे संसार के दास हैं।