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भगवान महावीर का सन्देश
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'सभी प्राणियों पर समभाव रखें, चाहे वह प्रापका वे बाह्याडम्बर और प्रदर्शन को अनावश्यक तथा हेय शत्रु हो अथवा मित्र । सभी को अपने समान समझे। मानते थे। उन्होने कहायही अहिसा (प्राणातिपात-विरति) है'।
न वि मंडिएण समणो, न मोंकारेण बंभणो। उन्होने दया को धर्म का मूल बताया है :
न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावतो।।
उत्तरा २५.२६ 'इष्ट ययात्मनो देह , सर्वेषां प्राणिनां तथा । एवं ज्ञात्वा सदा कार्या, दया सर्वा-सुधारिणाम ॥'
शिर मुडा लेने से ही कोई 'श्रमण' नही बन जाता। -पद्मपुराण, १४.१८६ केवल 'प्रोकार' का जप कर लेने से कोई 'ब्राह्मण' नहीं
हो जाता । केवल जगलवास करने से ही कोई 'मुनि' नही भगवान् महावीर ने कहा कि सृष्टि में जितने प्राणी
बन जाता और न वल्कल वस्त्र पहनने मात्र से कोई है सभी को जीने का हक है। अतः जानते हुए अथवा
तपस्वी ही हो जाता है। बल्कि-.नही जानते हुए उनकी हिसा न तो स्वय करे और न
समयाए समणो होइ, बभचेरेण बभणो । दूसरों से ही करवायें।
नाणेण य मुणो होइ, तवेणं होइ तावसो ॥ सम्वे प्राणा पियाउया,
उत्तराध्ययन, २५-३० सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा ।
समता पालने से 'श्रमण', ब्रह्मचर्य का पालन करने पियजीविणो जोविउकामा, सम्वेसि जीवियं पियं ॥
से 'ब्राह्मण' चिन्तन, मनन और ज्ञान के कारण 'मुनि' -प्राचाराग सूत्र १-२-३ तथा तपर
तथा तपस्या करने के कारण 'तपस्वी' होता है। सभी प्रणियो को अपने-अपने प्राण प्रिय है, सब सुख
महावीर स्वामी ने क्रोध, मान, माया, और लोभ
जैसे विकारी भावो को अपना अहित और अपयश कराने चाहते है, दुःख पसन्द नही करते । हिसा नहीं चाहते। जीने की इच्छा सभी में है। अत: सबकी रक्षा करना
वाल बताकर उन्हें सभी अनर्थों के जड़ के रूप में निरूपित मानव का कर्तव्य है।
किया है। उन्होंने कहा- क्रोध को शान्ति से जीतो। प्रमाद सभी प्रकार के अनर्थों की जड़ है उससे व्यक्ति
क्रोध से मनुष्य नीचे गिरता है, अभिमान से अधम गति का भविष्य अन्धकार के गर्त मे पडता है । भगवान् महा
को पाता है। माया से सद्गति का नाश होता है और वीर ने समाज से आग्रह किया है कि वह प्रताद को छोड
लोभ से इस लोक तथा परलोक-उभयत्र भय एव निन्दा कर अपने कर्तव्यों का निर्वहण करे।
होती है।
भ० महावीर समाज में राष्ट्रीय जागृति लाना चाहते रिबप्पं न सक्केइ विवेगमेउ'
थे। इसके लिए उन्होने 'विवेक' को जागत करना तम्हा समुठ्ठाय पहाय कामे।
प्रावश्यक बताया। विवेक होने पर ही उपदेश की समिच्च लोय समया महेसी,
सार्थकता है। अप्पाण-रक्खी-रक्खो चरमप्पमत्तो ।।
उद्दमो पासगस्स स्थि, उत्तगध्ययन सूत्र-४-१०
बाले पुण णिहे कामसमणणे । विवेक की उपलब्धि जल्दी नही हो जाती। उसके असिम दुक्खे दुक्खी, लिए महती साधना आवश्यक है। साधक का यह कर्तव्य
दुक्खाणमेव प्रावह प्रणपरियद्दइ । है कि वह काम-मोगो का परित्याग कर समता भाव से
प्राचाराग सूत्र । ससार को यथार्थ स्थिति का अनुभव करे, प्रात्मा को उपदेश की आवश्यकता सामान्य व्यक्ति को होती हैं, पाप से बचावे और पूरी तरह से प्रमाद को छोड़ कर विवेकी के लिए कदापि नही। अज्ञानी राग-द्वेष से ग्रस्त विचरण करे।
और कषायों से पीड़ित तथा विषय-भोगों को कल्याणकारी