Book Title: Anekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 329
________________ भगवान् महावीर का सन्देश डा० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु', एम. ए., पो-एच. डी., शास्त्री विश्व के इतिहास मे ईसा पूर्व छठवी शती सांस्कृतिक किया। साधना और ज्ञानोपलब्धि के पश्चात् उन्होंने क्रान्ति का युग माना जाता है। इस युग मे सम्पूर्ण ससार सम्पूर्ण विश्व को बिना किसी भेद भाव के कल्याण के में अनेक प्रकार की उथल-पुथल हुई है। परिणाम स्वरूप प्रशस्त मार्ग का निर्देश किया। "मित्ती मे सव्व भएम' अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन सामने पाये। धर्म और दर्शन (सब प्राणियो से मेरी मित्रता है) यह था भगवान महाके क्षेत्र भी इससे अछूते नहीं रहे। इस क्रान्ति में भारत वीर का आदर्श । वे हिसा के मूर्तमान प्रतीक थे। उनका और विशेष रूप से बिहार प्रान्त (तत्कालीन मगध) की । जीवन त्याग और तपस्या से प्रोत-प्रोत था। उन्हे रचमात्र गौरवान्वित वसुन्धरा भला कैसे पीछे रह सकती थी। भी परिग्रह और ममता नही थी। सत्य का जिज्ञासु और महामहिम महावीर और गौतमबुद्ध जैसे महापुरुषो का अन्वेषक प्रत्येक मानव उनके सघ के नियमो को स्वीकार प्रादुर्भाव उसी समय का सुपरिणाम है। कर सकता था या संच में सम्मिलित हो सकता था। वैशाली (वर्तमान बसाढ़, जिला मुजफ्फरपुर) की आगम ग्रन्थों में इस प्रकार के उदाहरण प्रचुरता से मिलते गणतन्त्र परम्परा के उन्नायक, ज्ञातृवंशीय राजा सिद्धार्थ है । जिनके अनुसार कोई भी प्राणी किसी भी कुल या जाति मे क्यों न उत्पन्न हुप्रा हो, यदि उसके कर्म उच्च मौर महारानी त्रिशला से ईसापूर्व ५६६ में चैत्र शुक्ला । १३ को जनमे बालक वर्द्धमान को शाही शान-शौकत और प्रकार के है तो वह उच्च कुल या उच्च वर्ण का बन चमक-दमक तनिक भी प्रभावित नहीं कर सकी। उस सकता था और यदि उसके कार्य निम्न कोटि के या निन्द सकता समय हिसा, पशुबलि और जातिपाति के भेदभाव चरम नीय है, भले ही उसका जन्म उक्चकुल में हुआ है, तो वह सीमा का स्पर्श कर चुके थे। वर्द्धमान बहुत साहसी, निम्नतर वर्ण में पहुँच जाता था। इस प्रकार की सार्व जनिक प्रवृत्तियों ने सामाजिक सश्लिष्टता और सर्वोदय निर्भीक और विवेक सम्पन्न थे। उनके साहस, धैर्य और की भावनाओं को बल तो दिया ही, आत्म-विकास एव पराक्रम की बहुत सी कथाएँ प्रसिद्ध है । वह परम्परा और प्रभ्युदय के लिए सभी प्रकार के सीमा बन्धनों का और परिस्थिति के अनुसार नही चला, बल्कि उसने परि- " अभाव भी कर दिया। स्थितियों को अपने अनुरूप बनाया। उसने क्रमशः परिस्थितियो पर ऐसा नियन्त्रण किया कि थोड़े ही समय में भगवान महावीर ने अपनी दिव्य देशना के द्वारा 'महावीर' कहलाने लगा। उसकी विभिन्न गतिविधियों प्राणिमात्र को सबोधित किया। पशु-पक्षी तथा विविध के कारण उसे सन्मति, महति, वीर, महावीर, अन्त्यका योनियों के प्राणी भी उनके उपदेश सुन सकते थे । उपदेश श्यप, नाथान्वय आदि नामों से भी सम्बोधित किया जाता का माध्यम था-जन सामान्य की भाषा अर्द्धमागधी है। उसने अपने व्यक्तित्व का कैसा विकास किया जिससे प्राकृत । उन्होने कहा कि-सुख और दुःख की अनुभूति कि वह सामान्य मानव न रहकर 'महामानव', 'महापुरुष' सभी को एक जैसी होती है। अतः कोई ऐसा कार्य मत कीजिए जो पापको और दूसरों को अप्रिय हो। इसी और 'महात्मा' की कोटि मे अधिष्ठित हो गया। सन्दर्भ में उनका सन्देश है :अपने विकास के मार्ग में महावीर ने आत्मसाधना के समया सवभूएसु सत्तु मिसेसु वा जगे। अतिरिक्त चिन्तन, मनन, प्राणि-मात्र की हितैषिता एवं पाणाइवाय विरई, जावज्जीवाए दुक्करा ॥ सर्वप्राणि-समभाव की उदात्त प्रवृत्तियों को भी प्रात्मसात् -उत्तराध्ययन सूत्र १६-२५

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