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पद्मावती
प० जिनदास ने होली रेणुका चरित्र की रचना की जिन का नवमा श्लोक और पार्श्व जिन स्तवन का पद्रहवां जिससे ज्ञात होता है कि उसके पूर्वज हरपति को देवी का श्लोक पद्मावती की भक्ति के लिए ही रचे गये है"। वर प्राप्त था"।
इस प्रकार पद्मावती का महत्त्व प्राचीनकाल से रहा "भैरव पद्मावती कल्प' मे पद्मावती की १००८ है और इस कारण प्रत्येक जैन क्षेत्र पर पद्मावती देवी नाभों से स्तुति की गई है। इसी प्रकार उसमें पदमावती की मूर्ति की स्थापना की जाने लगी है। श्री महावीर जी कवच, स्तोत्र, स्तुति आदि दी गई है।
मे नव निर्मित शाति नगर मे चौबीसी के बाद पद्मावती श्रीमती काउझे ने 'एन्शियण्ट जन हिम्म' मे पार्श्वनाथ देवी की मूर्ति प्रतिष्ठापित है। स्तवन संकलित किया । इस स्तवन के श्लोक श्री नय पद्मावती सम्बन्धित साहित्यिक तथा पुरातात्विक विमल सूरि के है। इसके नवमे और दसवे इलोक मे साक्ष्य अधिक प्राचीन प्राप्त होते है। इससे यह कहा जा पदमावती की स्तुति की गई है। दशवे श्लोक की पालो- सकता है कि जैन वाङ्गमय में पद्मावती देवी की परिचना करते हुए श्रीमती काउझे ने कहा "दशवा श्लोक देवी कल्पना सबसे पहले की गई। उसके बाद बौद्धों ने उसी को पदमावती के मत्र की महत्ता को बताता है यह पार्श्वनाथ तारा तथा अन्य ध्यानी बुद्ध के रूप में साहित्य मे लाये को शासन देवी है। इसकी अत्यधिक पूजा अर्चना की गई और बाद मे हिन्दू तथा शैव मे भी। इस प्रकार पदमावती है" । इसी प्रकार जैन स्तोत्र समुच्चय मे घोघामंडन पार्श्व सर्प देवी को ही भन्य रूपों में प्रदर्शित किया होगा। वही
परम्परागत चली आ रही है। ४५ भगवती सूत्र पृ. २२१ ।
प्राज पुन: इस देवी की महत्ता बढ़ी मोर उसे तीर्थ ४६ पूर्व हरिपति म्नलिव्ध पद्मावती वरः। होली
स्थानों पर तथा पाश्र्वनाथ मन्दिरो में स्थापित की जाने रेणुका चरित्र प्रशस्ति, अग्रभाग जैन प्रशस्ति संग्रह
लगी है। वीर सेवा मंदिर दिल्ली, पृ. ६४, श्लो. २६ । ४७ भैरव पद्मावती कल्प पृ. ६६-१२७ ।।
४६ जैन स्तोत्र समुच्चय पू. ४७, श्लो. ९ और पु. ५७, ४८ का उजे : 'एन्सियण्ट जैन हिम्स' पृ. ४६ ।
श्लो. १५।
कांचन का निवेदन अपनी मानसिक व्यथा सुनाते हुए कांचन ने स्वर्णकार से कहा-इस समय आपके अतिरिक्त मेरा कोई भी स्वामी नहीं है। मैं आपके अधिकार में हूँ। स्वामिन् ! मेरा जन्म स्थान पृथ्वी का निम्नतम स्थान था। मिट्टी मिश्रित होने से मैं हत-प्रभ-सा हो रहा था। मुझे अब यह विश्वास तक नहीं था कि मैं आपकी शरण में आकर भी अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सकूगा । मैं बहुत ही सौभाग्यशाली है कि ऐसे समय में भी मुझे आपके दर्शनों का सुअवसर प्राप्त हुआ । अापके उपकार से मैं कभी भी उऋण नहीं हो सकता । अापके अन्ग्रह से ही संसार में मेरा अत्यधिक महत्व बढ़ा है।
मेरा एक विनम्र निवेदन है कि आप मेरा उपयोग जो चाहें, करें। अनल की प्रचंडतम ज्वाला में मुझे झोंक सकते हैं। विभिन्न तोक्षणतम अस्त्र-शस्त्रों से मेरा छेदन-भेदन कर सकते हैं। लोहे के कठोर हथौड़ों से मुझे ताडित भी कर सकते हैं। आपका मेरे पर पूर्ण अधिकार है। किन्तु स्वामिन् ! भूल-चूक कर भी आप मुझे कभी तुच्छ गुंजा के साथ मत तोलना । उस अनमोली के साथ मुझे बैठाकर अपनी कृति का अपमान न कराएँ। उसमें सहनशीलता का नाम तक नही है। इसलिए कष्टों के भय से उसका मुख काला हो गया है और शेष भाग दूसरों के गुणों को देखकर जलने के कारण लाल हो गया है । ऐसे निम्न व्यक्तियों की संगति मेरे लिए कभी सुखावह नहीं हो सकती। एक बार पुनः प्रार्थना है कि मुझे अब कभी इस अधमा से मत तोलना ।
-मुनि कन्हैयालाल
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