Book Title: Anekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 317
________________ २६६, वर्ष २२ कि०६ अनेकान्त जूनइ गढि जोहारि जिण जनम सफल करि प्राज। ऊनय नयरि निहालणीय नयणे तीरथ राज ॥६ ॥ वस्तु॥ कुक्कड़ेसर कुक्कड़ेसर पुरहि अहिछत्त । छग्वटणि दीवपुरि सींहदीव देवकइ पाटणि । वरकाणइ कइंदवणि कहरवाडि कारि सुवासणि । मज्जाउद जाउर जवणउर वीजापुर जोइ । उज्जेणी जोगिणपुर जिण जगि जीव न होइ॥७ ॥ भास। सिरि सिणोरइ पुरइ पण चेलण पुरइ । साहपुरि खारपुरि पास पचासरे । राजपुरि राजए नयरि पंथाहड़े। कुशल करि सामि कंकोलपुर प्राहरे॥११ कत कतोपुरी दिपुरी चेलणं, गरुय गुण गह गउड़ीपुरी मंडण, वड नर वड़ नयणि नाह निरखिज्जए । पारकरि पास पय कमल फल लिज्जए ॥१२ ॥ ढाल॥ षवलकए पास कलिकुंड घृतकल्लोल मेलगपुरह । सामलउ ए अहमदावाद प्रासाउलि सलखणपुरह । बहथली ए बसम देव वेलाउल वडली नार । पासीयउ ए प्रासलकोटि गोपाचलगिरि जोधपुरि ॥ महरह ए मगसीय गाम मम्मणवाहण मन रलीए । तलाजज्ञ ए मरम दारंभि मसूयवाड़इ बीजलीए। वडपतइ ए थयराउद्रि नाडउहि पहाड़पुरि। हडाई ए हियडलइ हेव पास वहिसुहं हरस भरे ।। || भास ॥ जसु समरणि नासइ सर्व रोग। जसु समरणि लाभइ समय जोग । जसु समरणि सवि प्रापद टलंति । जसु समणि सवि संपदि मिलति ।।१३ कड पूर्याण सायणि भय पेय । मरि हरि करि व्यंतर दुट्ठ जेय । तुह चरण मरण जे करइ नाह। तिह ते नव पहुवइ पास नाह ॥१४ इय सय अट्रोनर ठाण सठिय पास जिणवर मानिया। मह सुद्ध चित्तइ गरूप भत्तइ रासबंधहि गंथिया । जे कंठ कदल करइ निरमज्ञ भाव भविषण ते सया। जिणभद्द सासय सुह समाणय अट्ठ सिद्धिहि संपया ॥१५ इति श्री अट्टोत्तर सत पाश्वनाथ स्तवनम् ।। [अभय जैन ग्रन्थालय गुटका न० ३४ पत्र १३१ से ३४; १७वी शती लिखित] ॥वस्तु । मोरवाड़इ मोरवाड़इ मयण मय हरण । टोमाणह माणीयइ ए मूलथाण मानिय विभूषण | घंधूकइ धरमपुर बाधणउरि पुरि रह्यउ दूषण । पाटउपइ सिद्धा सुयए अणि अंथइ भोहर । चोरवाड़ वीसल नयरि जसु सेवइ कोहड ॥१० अनेकान्त के ग्राहक बनें। 'अनकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इस लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों कालेजों, विश्वविद्यालयो और जन श्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन सस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'अनेकान्त'

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