Book Title: Anekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 303
________________ २८२ वर्ष २२ कि. ६ अनेकान्त समाचार-पत्र का होना श्रुत से केवल-ज्ञान पर्यत वैसा ही अहिंसा के सर्वोच्च अवतार हैं पर के अनुराग से अम्न बंध है जैसा कि मति-ज्ञान मे था। हा, यह हो सकता है हैं ? वस्तुत: अहिंसा-तत्व को अनुराग और करूणा से कि अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान रूपी प्रतीन्द्रिय संयोजित करना ही भूल है। अहिंसा निस्संगता की ही ज्ञान में वही वस्तु-सत्य समाचार-पत्र के साथ-साथ कुछ पर्याय है। क्योंकि हिंसा, यदि वस्तुतः देखा जाये, राग मौर भी दिखाई पड़ने लगे। उसकी अनेकानेक गुण द्रव्य का परिणाम है। बस राग-वृत्ति का निषेधी-करण ही गत पर्यायें समवेत रूप से विषयगत हो जाये, परन्तु उस वीतगगता है। और वीतरागता अहिंसा है। न मारना सम्पूर्ण जटिल एवं व्यापक दृष्टि-बोध मे मति-ज्ञान के तो उक्त वीतरागता का प्रतिफलन है । वीतरागता प्रात्मएक लघु कण का अनस्तित्व नही हो सकता । इस प्रकार दष्टि मात्र है। अहिंसा उसी प्रात्म-दृष्टि की प्रक्रिया है । वस्तु-सत्य के प्रत्येक प्रायाम मे दूसरे पायाम का तात्विक अहिंसक के लिए किसी का मरना या जीना दोनों बराबर समादर यथार्थ दृष्टि-बोध की जान है। जनो ने इस हैं। अहिंसक के पास तो एक साफ दष्टि है, जिससे वह स्याद्वाद तथा अनेकान्तवाद और आज के भी अनेकानेक वस्तू सत्य के स्वतः होने वाले परिणमन का यथा रूप मनीषियों ने विभिन्न नामो से प्राधूनिक भाव-बोध के अवलोकन करता है। वह किसी परिणमित क्षण का कता अन्तर्गत मान्य किया है। नही, दृष्टा होता है। संसार के प्रत्येक परिणमित क्षण का इसी यथार्थवाद के परिणामस्वरूप वस्तु-सत्य की वैसा ही निदर्शन कर देना और उसे किसी गहरे तात्विक प्रत्येक पर्याय का प्रत्येक क्षण यथार्थतः भोग्य हो गया। निषेध से संयोजित कर देना प्राधनिक भाव-बोध का तकइस प्रकार चिन्तक अथवा साहित्यकार के लिए प्रत्येक * नीक है, जो महावीरके अहिंसा-बोधका ही दूसरा नाम है । क्षण एक विशेष महत्व को लिए प्रकट हुअा। वस्तु सत्य अहिंसा-बोध में वस्तू-सत्य का सम्यक समादर है। अपनी सम्पूर्ण तात्विकता के साथ शृखला-बद्ध क्षणों की वस्तु-सत्य वही है जो अस्तिमय है । अतः अस्तित्व अथवा, सारिणी में प्रकट हुमा देखा जाने लगा। क्षण की उपा जैन पदावली मे, सत्ता की प्रत्येक पर्याय समादरणीय है । देयता अथवा अनुपादेयता अलग चीज है, लेकिन प्रत्येक देश, काल, भाव. द्रव्य प्रादि अनेक अपेक्षामो से पर्यायो क्षण है...यह मान लेना महत्वपूर्ण हो गया। महावीर ने की विविधता अनन्तरूपा बनती है। ये अनन्तरूप सत्ताणुएं कहा-धर्म के लिए मान लेना पहले आवश्यक है कि अपने कार्मिक क्षयोपशम की शक्ति से उत्थित और विलुप्त पाप भी है, प्रात्मा भी है और अनात्मा भी है, ससार भी होती हुई अहिंसा के शुद्ध ज्ञान का विषय बनती है। है और मोक्ष भी है, आदि-ऐसे वैपरित्य युगल के अहिसक अपने पूर्ण निस्सग भाव से इन सत्ताणुप्रो का अस्तित्व को स्वीकार कर ही पाप का, आत्म-बोध का, स्वभाव मात्र अवलोकित कर निज स्वभाव की उपलब्धि मोक्ष का प्रगीकार और विरोधी का निषेध किया जा में संलग्न रहता है। इस निज स्वभाव की उपलब्थि का सकता है । जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं, उसका निषेध व्यावहारिक परिणमन है अतर्जीवीकरण, जो लेखक के भी कैसा। महावीर ने इसीलिए तत्कालीन सभी सम दृष्टि-कोण मे राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, मानवीयकरण के भी स्यानों का यथार्थ दर्शन कर उन्हें उपादेयोन्मुखी किया। बाद का सोपान है। प्राज जबकि हम केवल इन प्रारदास-प्रथा, आर्थिक असमानता, यौन सम्बन्ध, शोषण म्भिक सोपानों में ही भटक रहे है, महावीरकालीन माधुमादि सभी समस्याओं पर उनका निश्चित दृष्टिकोण है। निकता इन सबको लांघ चुकी थी, लेकिन कालान्तर में प्राधुनिकता के इस प्रथम दौर मे एक महत्वपूर्ण वही पतनग्रस्त होकर केवल सम्प्रदायीकरण के सोपान मुद्दा और है-अहिंसा । अहिंसा का साधारणतः अर्थ है पर आ बैठी। अब हमारे पास भविष्य में यह माशा 'न मारना'। 'न मारने' मे पर के निमित्त अनुराग और करने का यथेष्ट प्राधार उपलब्ध है, कि प्रात्म-बोध की करुणा की प्रतीक होती है। क्या करुणा मोह-भंग दर्शन इस प्राधनिक प्रक्रिया का विकास जीवन के प्रत्येक पहलू की निस्संमिता से कोई मेल खाती है ? क्या तीर्थकर जो में उत्तरोत्तर होता ही चला जाएगा।

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