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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
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में नहीं है हालांकि इसका पाठ भी उन व्यवसायी कथकों वर्णन ही रहा था । परन्तु मन्य काव्यो मे, प्रतिपाद्य विषय के हाथों कि जो लोकरुची की मांग की पूर्ति करना कवि को अपनी व्याकरण-ज्ञान पटुता, भाव-व्यंजन सुकचाहते थे, वृद्धि को अवश्य ही प्राप्त हुआ है। राम रता, शैली-चातुर्य, वर्णन और भाव दोनों से सम्बन्धित की कथा को महाभारत में भी स्थान मिल गया है और काव्यालंकारिता का सुदक्ष प्रयोग, और काव्यशास्त्र के दशरथ जातक के कथानक से उसका निकट सादृश्य है। जटिल और रवाजी सिद्धान्तो के पूर्ण ज्ञान के प्रदर्शन का, रामायण का पहला और अन्तिम काण्ड जिन्हें सूक्ष्मदर्शियों एक निर्बल प्राधार है। जो कभी गुण थे वे ही दोष हो ने पीछे से जोडा हा घोषित किया है, उस विष्णु को गए, क्योंकि उत्तरकालीन कवियों ने अपने ज्ञान के पांडि
त्यपूर्ण प्रदर्शन की चिन्ता में विभिन्न मूल्यो को बल देने तार लिया था, सम्पादकीय प्रयत्न का स्पष्ट ही उद्घोष के अनुपात और सन्तुलन का सब ज्ञान ही भुला दिया है। है। इस प्रकार विशुद्ध लोक-कथा पर भी साम्प्रदायिकता जैसा कि मेक्डोन्येल ने कहा है, प्रतिपाद्य विषय जटिल ने अपना हाथ साफ किया है। रामायण में विकसित कुछ अभिमान के प्रदर्शन का साधन अधिकतम मान लिया गया पात्र अवश्य ही मनोरंजक है । भारतीय स्त्री के आदरणीय है यहाँ तक कि अन्त मे सिवा शाब्दिक कलाबाजी और प्रादर्श रूप मे सीता का वहाँ चित्रण है, और भारतीय दीर्घ पद-विन्यास के और कुछ वह रह नही गया है। गावों के लोकप्रिय देवता के रूप में श्री हनुमान का। कालीदास से प्रारम्भ होकर और सस्कृत के जीवटपूर्ण सीता-जन्म की काल्पनिक कथा हमे उस ऋग्वेदीय काल की समाप्ति तक, महाभारत मोर रामायण ही अनेक लाल-पद्धति का स्मरण करा देती है कि जिसका वहाँ लेखकों के लिए सदा-प्रवाही विषय-स्रोत रहे थे और जिसे व्यक्तिकरण कर देवी रूप से प्राह्वान किया गया है। उनने गीतिक, शृगारिक मोर प्रोपदेशिक रसो द्वारा खूब रामायण निरा महाकाव्य ही नहीं है, अपितु उसका बहुँ- अच्छी प्रकार सजाने में कोई कसर ही नहीं रखी है। ताश ऐसी अलंकार-बहुल काव्य प्रवृत्ति भी प्रदर्शित करता काव्यों में रघुवश, भट्टिकाव्य, रावणवहो, जानकीहरण है कि जहाँ कथा की शैली, उसके विषय जितनी ही आदि का विषय राम कथा ही है और किरातार्जुनीय, महत्वपूर्ण है। उसके सातवे काण्ड में विशेष रूप से, हमे शिशुपालवध, नैषधीय प्रादि का विषय निर्वाचन महाभारत अनेक पौराणिक कथाएँ और जीवनियां प्राप्त होती है का प्राभारी है। नाटको में से अधिकांश का प्रसग दोनों जैसा कि ययाति एवं नहुष की जीवनी, वशिष्ठ और महाकाव्यो और बृहत्कथा से लिया गया है। मुद्राराक्षस अगस्त्य की जन्म-कथा प्रादि-आदि कि जो पीछे से उसमे और मालतीमाधव जैसे नाटक इने-गिने ही है कि जिनने प्रविष्ट कर दी गई है।
महाकाव्य बाह्य पात्रों को अपने नाटक का विषय अब पुराणों का विचार करें। जगदुत्पत्तिक पौर
बनाया है। बाद के कवियो ने, चाहे गद्य हो या पद, उनमें देवों, सन्तों, वीरो, अवतारो और राजवशों का
कथा-वर्णक का ध्यान इतना नही रखा है जितना कि अपने वर्णन किया गया है। उनकी प्रोपदेशिक ध्वनि और
पाडित्य-प्रदर्शन का। दशकुमारचरित, वासवदत्ता, कादसाम्प्रदायिक उद्देश्य सर्वत्र बिलकुल स्पष्ट है । महाभारत
म्बरी प्रादि गद्य रमन्यासो के लिए तो यह बिलकुल ही पौर रामायण के उत्तरकालीन क्षेपको से उनका सन्निकट सत्य है । इनके लेखक दोनों महाकव्यो से गहन परिचित सम्बन्ध परिपूर्ण परिलक्षित होता है।
प्रतीत होते है, परन्तु उनके कथानक का विषय न तो रामायण में अलकार-बहुल शैली का प्रदर्शन कहीं-कहीं उनसे लिखा ही गया है और न वह उनका है ही। उनकी ही होता है। परन्तु जब हम सस्कृत-साहित्य के काव्य- शला भा एसा है कि उन्ह परम-बुद्धि-प्रामम
शैली भी ऐसी है कि उन्हे परम-बुद्धि-अभिमानी भी कोई. स्तर की मोर देखते है तो महाकाव्य-स्तर से उसकी विशे
कोई ही पढ़ सकता है। उपमानो की छठा, अनुप्रासो का षता स्पष्ट परिलक्षित हो जाती है। महाकाव्यकार का
बाहुल्य, समास भरी जटिल शैली ही इन गधों के सामान्य मुख्य लक्ष्य अपना प्रतिपाद्य विषय और उसका सजीव ३. ए हिस्ट्री माफ सस्कृत लिटरेचर, पृ. ३२६