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७०, वर्ष २२ कि० ६
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लक्षण है। इनके साहित्यिक गोष्टव के रसास्वादन और काव्य-विचारणा के ग्रहण करने के लिए व्याकरण और अलंकार शास्त्र के कठोर अध्ययन की दीर्घकालीन शिशि क्षुता प्रत्यन्त ही प्रावश्यक है। इन लेखकों की इच्छा न होते हुए भी, उनकी पृष्ठभूमि धार्मिक है और सारे ही राज्य में धार्मिक प्रौपदेशिक अनुरोध विखरे पड़े है भर्तृ हरि जैसे लेखकों की रचनाओंों में भोपदेशिक तत्व प्रधान हो जाते है। भ्रमरू जैसे कवियों की कृतियों में विशुद्ध । श्रृङ्गार परिलक्षित होता है, परन्तु जयदेव जैसे कवि द्वारा ये ही भाव धार्मिक पृष्ठभूमि मे पथ्चीकरण कर दिये गए है मोर प्राध्यात्मिक सुतान द्वारा उनकी अभिव्यंजना हुई है । इन प्रलंकार - बहुल रचनाओ में वर्णनात्मक कहानी का कोई अवकाश या क्षेत्र रह नही गया है ।
जब हम पंचतन्त्र और उस जैसे ही प्रत्थो की प्रौप देशिक नीति-कथाओंों का, माव-व्यंजक कथायो का जिनका नमूना बृहत्कथा में होना प्रतीत होता है और जिनको वेतालपंचविशतिका आदि कथाए प्राज प्रतीक है और धार्मिक एवं नैतिक कथाओं का कि जिनके नमूने महाकाव्यों में मिलते है और जिनका विभिन्न धर्म के अनुयायी अपने-अपने ढंग से परिपोषण करते है, व्यापकता का विचार करते है तो ऐसा मालूम होता है कि मनोरंजन का लक्ष्य उपेक्षित न करते हुए भी, पाठक को उपदेश देने की इच्छा ही लेखक के मन में सर्वोपरि है। मनुष्य भूल करने वाला एक पशु है जो अन्तर और बाह्य दोनों ही शक्तियों के प्रभाव से प्रभावित होकर अनेक रूप मे काम करता है। इसलिए उसे सम्यज्ञान मौर सम्बम्चारिण याने प्राचरण की शिक्षा देना परम आवश्यक है । बहुताश मैं यह ऐसे दृष्टान्तो द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है कि जिनमें पशु-पक्षी पात्र रूप से प्रस्तुत किये जाते हों, जिनमे काल्पनिक व्यक्ति भी भाग लेते बताए जाते है या जिनमें देव और अर्ध ऐतिहासिक व्यक्ति तक अभिनेता हों। २. श्रमण भावना : वैरागी काव्य
भारत की वर्णनात्मक कथा के स्थूल रूपरेखा का सर्वेक्षण अब तक जिस साहित्य से किया गया था, वह सब उन लोगों का था जो कि वेदों को सर्वोत्तम धार्मिक साहित्य मानते है और जो वैदिक धर्म या उसके प्रत्यक्ष
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अप्रत्यक्ष उत्तराधिकारी धर्मो के ही अनुयायी है। वेद काल से लेकर महाकाव्य एवं स्मृति काल तक के भारतीय साहित्य के सूक्ष्म ऐतिहासिक अध्ययन ने भारतीय विद्या विदों को साहित्य की इस व्यापकता मे निहित धार्मिक विचारधारा के दार्शनिक विकास मे एक दरार का पता लगा लेने में सहायता मिली है। उपनिषद्-युग तक पहुँचने के पश्चात हमें ऐसे विचित्र विचारों से वास्ता पड़ता है जिसे कि पुनर्जन्म सिद्धान्त, वैराग्य और दुसवाद की प्रोर जीवन का झुकाव और यज्ञ धर्म से आत्मविद्या की महानता । अब ज्ञान का एकाधिकारी ब्राह्मण ही नही माना जाता है। प्रमुख क्षत्रियगण उपर्युक्त सिद्धान्तो में से कुछ की व्याख्या और विवेचना करते देखे जाते हैं कि जिनका यथार्थवादी समीक्षक को वेद या ब्राह्मण में कोई भी आधार नहीं मिलता है। प्रायों के भारत में पदार्पण के पूर्व हमारा यह सोचना उचित ही है कि, गंगा-यमुना के के उर्वर तटों के सहारे सहारे बसी अत्यन्त सुसंस्कृत समाज पहले से ही विद्यमान थी और उसके अपने धार्मिक प्राचार्य व उपदेष्टा भी थे । वैदिक शास्त्र सदा से ही मगध देश को जहां कि जैन एवं बौद्ध धर्म पूर्ण तेज के साथ चमक रहा था, कुछ-कुछ घृणा से देखते रहे है, क्योंकि ये धर्म वेदों का भाविपत्य स्वीकार ही नहीं करते थे। ब्राह्मण काल की समाप्ति पर दार्शनिक विचारधारा में दीखने वाली इस दरार ने एक ऐसी स्वदेशी धार्मिक विचारधारा के अस्तित्व का स्वीकरण आवश्यक कर दिया है। कि जो प्रार्थ विचारधारा को प्रभावित करते हुए स्वयम् भी उससे पूर्ण प्रभावित हुई होगी । भिन्न-भिन्न पण्डितो ने पूर्वी भारत के इस स्वदेशी धर्म का भिन्न-भिन्न रीति से वर्णन किया है। याकोनी ने उसे लोक-धर्म कहा; तो लायमेन ने यह कि उसके तोता परिव्राजक थे । गारबे ने उनका सम्बन्ध क्षत्रियों से बताया तो ह्रिस डेविड्स ने उसे सुसंगठित शक्तिशाली यायावरी का प्रभाव माना विण्टरनिट्ज ने सहज रूप से इन विचारों को 'वैरागी काव्य' का नाम दिया और मैं इसको 'मगध धर्म कहता हूँ। जैसा कि मैंने अन्यत्र कहा है हमे सांस्य, जैन, बीड, मोर भाजीवक सिद्धान्तो को भार्य विचारधारा के उपनिर्वादिक भूमि से मनुक्रमे संग्रहीत स्फुट विचारों की
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