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जैन तीथकर की कुछ महत्वपूर्ण मृण्मूर्तियाँ
संकटाप्रसाद शुक्ल एम. ए. राज्य-संग्रहालय, लखनऊ मे जैन तीर्थंकर की दो माप "X" है। इसमें सिर भजाएँ एवं प्रधो-शरीर महत्वपूर्ण मृण्मूर्तियां संग्रहीत हैं। इनसे जैन कला एवं खण्डित है। तीर्थकर की इस मूर्ति मे श्रीवत्स चिन्ह भी मूतिविद्या (iconography) पर विशेष प्रकाश पडता है। है। यह मृण्मूर्ति मूलतः ध्यान मुद्रा मे रही होगी, क्योंकि इन मृणमूर्तियों का विवरण निम्न है :
भुजाएँ वक्ष से सटी न होकर वक्ष से अलग दिखलायी (अ) संग्रहालय की एक मृण्मृति अभिलिखित है जो गई हैं। शैली के प्राधार पर यह मुमति गुप्तकालीन खीरी जिले (उ० प्र०) के मोहम्दी नामक स्थान से उप- प्रतीत होती है । (चित्र २) लब्ध हुई है। इस पर तीन अक्षरों का अभिलेख है उपर्य क्त दो मण्मतियों के अतिरिक्त तीर्थकर की जिसमे 'सुपार्श्वः' शब्द उत्कीर्ण है। अभिलेख की लिपि एक और भी मण्मृति प्राप्त हुई है। यह तीसरी मृण्मूर्ति प्रारम्भिक गुप्तकालीन ब्राह्मी है। अतः अभिलेख के मिदनापुर (बंगाल) के तिल्दा नामक स्थान पर मिली आधार पर मृण्मूर्ति की पहिचान जैन तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ थी जो अब प्राशतोष संग्रहालय, कलकत्ता के संग्रह में से की जा सकती है (चित्र १)'। इस मृण्मूर्ति में है। इसमें तीर्थंकर का कायोत्सर्ग-मुद्रा में अंकन हुमा है। तीर्थकर की आकृति चतुर्भुजाकार फलक पर उभरी हुई प्राचीन भारतीय कला में जैन मण्मूर्तियों का प्रभाव है । वह ध्यान-मुद्रा मे बैठे है। मृण्मूर्ति में अंकित उनकी
है। अब तक उपरोक्त तीन मृण्मूर्तियां ही उपलब्ध हैं। प्राकृति एक युवक जैसी लगती है। उनका केश-विन्यास जैन मण्मतियों की कमी का उपयुक्त उत्तर पा सकना सीमन्त से लहरदार (तरंग युक्त) दिखलाया गया है। कठिन है। वैसे जैन तीर्थंकर की मण्मतियों के निर्माण यह विशेषोल्लेखनीय है कि जैन तीर्थंकर की मूर्तियों मे एवं पूजन के सम्बन्ध में कोई धार्मिक प्रतिबन्ध नहीं था। उन्हें प्राय: मुण्डित शिर दिखलाया जाता है । इस मृण्मूति जैन बहत्कथा कोष' के ज्ञानाचरण कथानकम् में अहिच्छत्रा में केश-विन्यास दिखलाया जाना सचमुच महत्व का ।
। सचमुच महत्व का के राजा वस्तुपाल द्वारा एक जैन मन्दिर (जिनायतन) है । उनके कानों में कुण्डल है। जैन तीर्थंकर सुपाश्वनाथ निर्मित कराने का उल्लेख मिलता है जो उस मन्दिर में का सिर सर्प फणों से आच्छादित दिखलाया जाता है। तीर्थकर पाश्र्वनाथ की मृणमूर्ति स्थापित कराना चाहता इस मन्मति में सिर के चारों ओर जो प्रभामण्डल है था। कारीगर उक्त मूर्ति बनाने में असफल रहे। अन्ततः उसकी प्राकृति एक फण के सदृश है। अतः संभव है कि
एक जैन उपासक मृणमूर्ति बनाने में सफल हुमा था। कलाकार का उद्देश्य प्रभामण्डल न दिखलाकर सर्प-फण
मण्मूर्ति-कला प्रायः लोक-जीवन की कला मानी जाती है। दिखलाना ही अभीष्ट रहा हो। उसके साथ ही इस मूर्ति
क्या जैनधर्म की मणमूर्तियों का प्रभाव इस धर्म के प्रति में वक्ष पर श्रीवत्स चिन्ह नहीं है।
लोगों की उदासीनता का सकेत है ? (ब) संग्रहालय की दूसरी जैन तीथंकर की मृण्मुर्ति
२. राज्य-संग्रहालय, स०६७.७ : के प्राप्ति-स्थान के विषय में जानकारी नहीं है। यह
३. इन्डियन मार्केप्रोलोजी १९६०-६१ ए रिन्यू, पृ०७० खण्डित मृण्मूर्ति है जो कबन्ध मात्र है। इस कबन्ध की
PI. LXXXG. १. राज्य-संग्रहालय, सं०, ५३-६६ (प्राकार ५॥"x ४. बृहत्कथाकोष, (सं०) डा० ए. एन. उपाध्ये, बम्बई, २॥")।
१६४४, कथानक सं० २०, पृ० ३५ ।