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२७२, बर्ष २२ कि०६
को, बौद्ध ग्रन्थों में 'श्रमण और ब्राह्मण', अशोक के हैं कि जहाँ इसका ज्ञान क्षत्रियों राजा द्वारा एक ब्राह्मण शिलालेखों में 'समणबंभण', और मैगस्थनीज द्वारा 'बकम- को दिया जा रहा है। वैरागी काव्य में जो संवाद स्पष्ट नाह मोर सरमनाई कह कर भली प्रकार मान्य किया है उस दुःखवाद का निर्देश तों एक दम उत्तरकालीन उपगया है । अपनी पृथक-पृथक जीवन कथानों, नैतिक मूल्यों निषदों ही में दिखलाई पड़ता है। और धार्मिक दृष्टिकोणों से ये दोनों ही भली प्रकार पह- इस वैरागी काव्य का स्पष्ट प्रभाव महाभारत और चाने जा सकते हैं। ब्राह्मण सिख पुरुषों की जीवनियां जैन एवम् बौद्ध शास्त्रों में ही दीख पड़ता है जैसा कि बैदिक परम्परा और कथानों से प्रारम्भ होती है। हम महाभारत के पिता-पुत्र संवाद में पाते हैं। इसका ही महान् ऋषि, वैदिक मंत्रद्रष्टा और स्मृतिकार प्रायः देवो प्रतिरूप बौद्धजातक और जैन उत्तराध्ययन सूत्र में भी के समकक्ष ही स्थान पा गए और ब्राह्मणों को उसी हमें दीख पड़ता है। इस प्रकार के वैरागी ग्रंश महाभारत प्रकार भेंटें दी जाने लगी, मानों वे पूर्ण क्षमता प्राप्त देव में अनेक है। उदाहरण स्वरूप निम्न अंश गिनाए जा प्रतिनिधि ही हों। परन्तु श्रमण सिद्ध-पुरुषों की जीव- सकते हैं :-विदुरनीतिवाक्य [५, ३२-४०], घृतराष्ट्र नियाँ संसार त्याग करने वाले संतों और घोर तप करने शोकापनोदन [स्त्री-पर्व २-७] 'कुएँ में लटक रहे मनुष्य' वाले तपस्वियों की है। ब्राह्मण नीति और धर्म विश्वास का दृष्टान्त, जो कि जैन एवम् बौद्ध शास्त्रों में भी पाया जातिवाद में खूब ही भीजे हुए है। वहाँ संसार-त्याग जाता है. कर्मव्याध का उपदेश [वनपर्व, २०७-१६, स्वीकार तो किया गया है, परन्तु जीवन में प्रमुख भाग तुलाधार-जाजली सम्वाद । शांतिपर्व, २६१-६४ ।, यज्ञ उसे वहां प्राप्त नहीं है। वेद का ज्ञान, यज्ञ और ब्राह्मण निन्दा प्रकरण [१२, २७२ प्रादि], गो कपिलीय प्रकरण की पूजा-प्रतिष्ठा ही को उसमे प्रमुखता दी गई है। बिही. २६९-७१], जनक की अनासक्ति [वही, १७८], नतिक मूल्यों का वहाँ महत्व लौकिक व्यवहारानुगत है। जो जैन और बौद्ध शास्त्रों में भी है, व्याघ और कबूतर दान का अर्थ वहाँ है ब्राह्मणों के प्रति ही उदारवृत्ति। की कथा [शांति, १४३-४६], मुद्गल की कथा [३, और प्रात्म-बलि का अर्थ है ब्राह्मणों की प्राज्ञानुवर्तिता। २६० प्रादि], आदि आदि । इन अंशों में प्रतिपादित राजा का स्वर्ग गमन भी ब्राह्मण गुरू की एक-निष्ठ
मा ब्राह्मण गुरू का एक-निष्ठ कुछ सिद्धान्त और नैतिक मूल्यों की ब्राह्मण धर्म से जैसा भक्ति पर ही निर्भर करता है। परन्तु वैरागी काव्यों के कि अन्यत्र उसका प्रतिपादन किया गया है, बिलकुल नैतिक लक्ष्य इससे बिलकुल ही भिन्न हैं। नैतिक अनु- संगति नही है। शासन और संसार-त्याग यहाँ मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति के इस पुरातन भारतीय वैरागी काव्य की ऐतिहासिक साधन रूप किया जाता है। संत न तो किसी से स्वयम् स्थिति का जब हम विचार करते है तो कहना पड़ता है भयाक्रान्त रहता है और न वह स्वयम् किसी को भया- कि इसका उद्भव स्थान महाभारत तो नहीं ही है क्योकि कान्त करता है। प्रात्म-त्याग और प्रात्म-निरोध का वह इस प्रकार के अंश उसके नवीनतम स्तरों में ही मिलते प्रत्युच्च अवतार ही है। सभी श्रेणियों के ज्ञानी इन हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत में सम्मिध्येयो का पाचरण करते हैं, और अहिंसा एवम् मैत्री ही लित किए जाने के पूर्व ही ये सम्वाद स्वतंत्र रूप से धामिक जीवन के प्रत्युच्च सिद्धान्त है।
अस्तित्व मे होंगे। अन्त में विण्टरनिटज कहते हैं कि विरागियों की नैतिकता या धर्म का प्राधार पुन- -मैं ऐसा सोचने को प्रेरित होता हूँ कि वैरागी काव्य जन्म और कर्म में विश्वास है। सर्वत्र संसार की प्रकृति और उसमें परिलक्षित जीवन का विशिष्ट दृष्टिकोण, सर्व की घोर शिकायत ही शिकायत है । मोक्ष के शाश्वत सुख प्रथम उस योग के पुरातन रूप में उद्भवित हुआ कि जो पर खूब ही बल दिया गया है। ये विचार वेद में कहीं एक प्राचारपद्धति और पाप-निष्कृति का व्यवहारिक भी नहीं मिलते हैं । छान्दोग्य मोर वृहदारण्यक उपनि- सिद्धान्त मात्र ही था और जो सांख्य विचारधारा से षदों में कर्म-सिद्धांत के कुछ प्राकस्मिक लक्षण मिल जाते उतनी ही सरलता से मिलाया जा सकता था जितना कि