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अनेकान्त
गुम्फा अभिलेख से भी यही ज्ञात होता है कि राजा परमेश्वर ने ऋषभावतार लिया था, जो जगत के लिए खारवेल के प्राराध्य देव भी ऋषभ ही थे। वह जिन की परमहस चर्या का पथ दिखाने वाले थे, जिन्हें जैनधर्मावप्रतिमा उसके द्वारा वृहस्पति मित्र से लायी गयी थी। लम्बी भाई आदिनाथ कहकर स्मरण करते हुए जैनधर्म जिसे मगध का राजा नन्द, विजयचिह्न स्वरूप कलिंग का प्रादि प्रचारक मानते है। जीत कर, उसके शासन के ३०० वर्ष पूर्व मगध ले गया बौद्ध साहित्य में उपलब्ध जैनधर्म की प्राचीनता था।
विषयक उद्धरणों से एक समय था जब बेवर जैसे विद्वानों . इस उल्लेख से तथा मध्य प्रदेश के जैन अभिलेखों ने जैनधर्म को बौद्धधर्म की एक शाखा बताया था। मे यही प्रकट होता है कि जैनियों के चौबीस प्राराध्य- किन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने में भी विद्वानों को देर न देवों की मान्यता बहुत प्राचीन कालीन है। जैन, परम्परा- लगी। विद्वान् जैकोबी ने इस धारणा का खण्डन किया। नसार उन्हें बहुत प्राचीनकाल से अपना प्राराध्य-देव तथा यह प्रमाणित कर दिया कि जैनधर्म बौद्धधर्म से न स्वीकार करते चले आ रहे है।
केवल स्वतन्त्र एवं पृथक् धर्म है अपितु वह उससे बहुत ईसवी सन् की पहिली शती में होने वाले-हुविष्क प्राचीन भी है। और कनिष्क के समय के जो अभिलेख मथुरा से प्राप्त कतिपय विद्वानों की यह भी धारणा है कि जैनधर्म हुए है, उनमें भी ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर का वर्णन के प्रवर्तक पार्श्वनाथ अथवा महावीर थे। परन्तु यह पाया है। कतिपय ऋषभदेव की मूर्तियाँ भी उपलल्ध हुई विचारणीय प्रश्न है यदि महावीर या पार्श्वनाथ ही जैनहै"। इन शिलालेखों से स्पष्ट विदित होता है कि ईसवी धर्म के चलाने वाले होते तो उनकी मूर्ति भी जैनधर्म के मन की पहिली शती में ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर रूप में प्रवर्तक इस उल्लेख सहित स्थापित की गयी होती। माने जाते थे। भागवत में ऋषभदेव के सम्बन्ध में यह भी जैसी कि ईसवी सन् की प्रथम शती की ऋषभदेव की कथन मिलता है कि वे न केवल दिगम्बर थे अपितु जैनधर्म प्रतिमाएँ पूर्वोल्लेख सहित मथरा से प्राप्त हुई हैं । जैनधर्म के चलाने वाले भी थे । एक माहत राजा से सम्बन्धित के प्रवर्तक के सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों के विचार भी उल्लेखों से भी ऋषभदेव की जानकारी मिलती है। उल्लेखनीय हैं। डा. सतीशचन्द महोमहापाध्याय ने
भागवत-पुराण के अाधार पर ही अन्य विद्वान् भी लिखा है कि "जैनधर्म तब से प्रचलित हुआ है, जब से यही स्वीकार करते हैं कि एक "त्रिगुणातीत पुरुष विशेष संसार में सृष्टि का प्रारम्भ हुमा है। मुझे इसमें किसी
प्रकार की उच्च नहीं है कि जैनधर्म वेदान्तादि दर्शनों से ५१. डा. वासुदेव उपाध्याय, प्राचीन भारतीय अभिलेखों
पूर्व का है।" डा. संकलिया ने भी ऐसे ही विचार का अध्ययन : प्रकाशक मोतीलाल बनारसीदास,
प्रकट किये हैं"। डा. राधाकृष्णन् ने तो स्पष्ट रूप से बनारस, १९६१ ई. द्वि० भाग पृ० २७, अभि.
लिखा है कि "वर्द्धमान अपने को उन्हीं सिद्धान्तों का प०१२। ५२. नन्दराजनीतानि प्रगस जिनस-नागनह रतन पडि- ५७. प्रो० माधवाचार्य एम.ए; जैन दर्शन : वर्णी अभि
हारेहि अंग मागध वसव नेयाति–खारवेल शिला- नन्दन ग्रन्थ : बही पृ. ७६ ।
लेख जन सि० भा० भा० १६ कि० २, पृ० १३४। ५८. Weber; Indische studian : XVI. P. 210 ५३.५० कैलाशचन्द शास्त्री; जैनधर्म : वही, पृ०६। ५६. The Dictionary of Chinese Budhist Terms ५४. प्रो. त्र्यम्बक गुरुनाथ काले; महावीर स्वामी की P. 184.
पूर्व परम्पराः वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ, वी. नि. ६०.९० पार्श्वकीति; विश्वधर्म की रूपरेखा : जैन २४७३, पृ. २४०।
साहित्य सदन, चांदनी चौक दिल्ली; वि. सं. २४८५ ५५. वही २४०।
पृ. ६२। ५६. श्रीमद्भागवत : अध्याय ६ श्लोक १-११। ६१. बही : पृ. ६१