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पाण्डे लालचन्द का वरांगचरित
डॉ० भागचन्द्र भास्कर इसी वर्ष के ग्रीष्मावकाश में जैन मन्दिर नदूखेडा नगर आगरौ तजि रहे हीरापुर में प्राय । (होशंगाबाद) मे सरक्षित हस्तलिखित ग्रथों को देखते करत देखि इस ग्रन्थ को कीनो अधिक सहाय ।। ममय पाण्डे लालचन्द का वरॉगचरित हाथ आ गया। ग्रन्थ की समाप्ति संवत् १८२७ में माघ शुक्ल पंचमी यकायक ध्यान आया कि यह वरांगचरित सम्भवत वही शनिवार को हुई, डा० ए० एन० उपाध्ये की सूचनानुवराँगचरित हो जिसका उल्लेख श्रद्धेय डा० ए० एन० सार । पर इस प्रति में शायद भूल से शनिवार के स्थान उपाध्ये ने अपने वरागचरित की प्रस्तावना (पृ. ५५) मे पर शशिवार लिख दिया गया है। किया है । मिलान करने पर मेरा अनुमान सही निकला। रचयिताइसकी एक प्रति पंचायती मन्दिर, दिल्ली में भी होनी
प्रस्तुत कृति के रचयिता पाण्डे लालचन्द के विषय में चाहिए।
अधिक जानकारी नहीं मिलती। वे हीरापुर (हिंडौन, जयप्रति परिचय
पुर) के निवासी थे। बलात्कार गण की अटेर शाखा के ते,खेडा जैन मन्दिर की इस प्रति मे ५४ पत्र है।
भट्टारक विश्वभूषण (सं० १७२२-२७२४) के प्रशिप्य और प्रत्येक पत्र के पृष्ठ में लगभग पन्द्रह पंक्तियों है और
अग्रवाल वंशीय ब्रह्मसागर के शिष्य थे। प्रत्येक पंक्ति में लगभग ५० अक्षर है । अक्षर मुपाठ्य है।
सं० सु अष्टादस सत जान ऊपर सत्ताईस परवान । छन्द नाम, सर्ग नाम, पद्य क्रमाक आदि लिखने में लाल
माहु सुकल पावै ससिवार ग्रंथ समापति कीनौ सार ।। म्याही का भी उपयोग किया गया है। पत्र के चारों पोर
देस भदावर सहर अटेर प्रमानिये । हाँसिया छूटा है। जहां-तहाँ उसका उपयोग लेखन काल
तहाँ विश्वभूषण भट्टारक मानिये ।। में छूटे हुए शब्दों को लिखने मे भी किया गया है । लिपि
तिनके शिष्य प्रसिद्ध ब्रह्मसागर सही। काल का उल्लेख इस प्रति में दिखाई नहीं दिया। प्रतः
अग्रवाल वरवस विष उत्पति लही ॥१३-८६।। प्रति कब की है, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी
यात्रा कर गिरनार शिखर की अति सुखदायक। कहना शक्य नहीं। सम्भव नहीं यदि यह प्रति स्वय
पूनि पाए हिंडौन जहां सब श्रावक लायक । कवि द्वारा लिखी गई हो । ग्रंथ की प्रशस्ति से भी यह अनु- जिनमति कौ परभाव देखि जिन मन थिर कीनौ ।। मान सही होता दिखाई देता है। वहां लिखा है कि शोभा- महावीर जिन चरत काल में तो नीती॥ चन्द के पुत्र नथमल प्रागरे से हीरापुर पाये और ग्रन्थ ब्रह्म उदधि की शिष्य पुनि पांडे लाल अयान । उन्ही के सहयोग से हीरापुर में समाप्त हमा। हीरापुर छन्द शब्द व्याकरण को जामैं नाहीं ग्यान १३९११ का भी जैन मन्दिर देखा मैंने । वहाँ इस ग्रंथ की कोई कवि ने वरांगचरित में स्वयं के सन्दर्भ में प्रायः कुछ प्रति नहीं मिल सकी। हीरापुर और तेदूंखेड़ा के बीच नहीं लिखा । वरागचरित के अतिरिक्त षट्कर्मोपदेशरलकोई बहुत दूरी नहीं। हो सकता है, कभी किसी प्रकार माला, विमलनाथ पुराण, शिवरविलास, सम्यक्त्व कौमुदी, यह प्रति हीरापुर से तेदूखेड़ा पहुँच गई हो । प्रशस्ति की अगमशतक आदि अनेक हिन्दी काव्यों के भी वे रचयिता कुछेक पक्तियां इस प्रकार है :नन्दन, सोभाचन्द को नथमल अति गुणवान । बरांगचरित का भाषार-- गोत विलालागगन मे उदयौ चन्द्र समान ।। जीवन्धर व यशोधर जैसे नपति वरांग भी जैन लेखकों