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अनेकान्त का दिव्य आलोक
पन्नालाल साहित्याचार्य
पदार्थ मे अनेक अन्त-धर्म रहते है । यहाँ अनेक का समस्त संसार विरोधी बातों से भरा पड़ा है। उनके अर्थ ऐसा नहीं है कि जैसे जीव में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, विरोध का निराकरण स्याद्वाद की पद्धति से ही हो सकता अव्यावाधत्व, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व व अगुरुलघुत्व आदि है। किसी एक पक्ष को खींचने से नहीं। अमृतचन्द्राचार्य गुण रहते है अथवा पुद्गल मे रूप, रस, गन्ध स्पर्श प्रादि। ने अनेकान्त की महिमा का उद्घोष करते हुए पुरुषार्थ यहां अनेक का पर्थ विवक्षित और अविवक्षित परस्पर सिद्धयुपाय में लिखा है :-- विरोधी दो धर्म है । जैसे-नित्य से विरोधी अनित्य, एक 'परमागमस्य वीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । से विरोधी अनेक, भेद से विरोधी अभेद आदि। इन्हीं सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। धर्मों को जो विषय करता है वह अनेकान्त कहलाता है। जो परमागम का प्राण है, जिसने जन्मान्ध मनुष्यो के अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद वाचक है। 'स्यात्' इस हस्ति सम्बन्धी विधान को निपिद्ध कर दिया है तथा जो निपात का अर्थ कथचित्-किसी प्रकार से होता है। समस्त नय विकल्पों के विरोध को नष्ट करने वाला है एक पदार्थ में दो विरोधी धर्म किसी खास विवक्षा से ही रह उस अनेकान्त को नमस्कार करता हूँ। सकते है एक विवक्षा से नही । 'देवदत्त पुत्र है' यह अपने इस पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ की रचना अमृतचन्द्र पिता को अपेक्षा कथन है और देवदत्त पुत्र नही किन्तु सरि ने समयसारादि ग्रन्थों की प्रात्मख्याति टीका लिखने पिता है यह अपने पुत्र की अपेक्षा कथन है । ‘पदार्थ नित्य
त्य के बाद की है। समयसार की निश्चय प्रधान कथनी से
नाही है' यह द्रव्य दृष्टि की अपेक्षा कथन है और 'पदार्थ अनित्य
त्य कोई अपरिपक्व बुद्धि वाला श्रोता दिग्भ्रान्त न हो जावे
से है' यह पर्याय दृष्टि की अपेक्षा कथन है। एक ही दृष्टि इसलिए वे अनेकान्त का जयोद्धोष करते हुए कहते है से पदार्थ नित्य और अनित्य नही हो सकता । वक्ता जिस किसमय द्रव्य दृष्टि को विवक्षित कर कथन करता है उस 'ध्यवहारनिश्चयो यः प्रबध्य तत्वेन भवति मध्यस्थः। समय पर्याय दृष्टि प्रविवक्षित होने से गौण हो जाती है प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ।।' और जिस समय पर्याय दृष्टि को विवक्षित कर कथन
जो पदार्थ रूप से व्यवहार और निश्चय के स्वरूप करता है उस समय द्रव्य दृष्टि अविवक्षित होने से गौण
को अच्छी तरह जानकर मध्यस्थ होता है वही शिष्य हो जाती है। पदार्थ का निरूण करते समय उपर्युक्त दो जिनेन्द्र भगवान् की देशना के पूर्ण फल को प्राप्त होता दृष्टियो में से एक को मुख्य और दूसरी को गौण तो किया है। जा सकता है पर सर्वथा छोडा नही जा सकता। मनुष्य ससार का प्रत्येक पदार्थ द्रव्य और पर्याय रूप है। दो पैर से चलता है परनु आगे तो एक पैर ही बढ़ता है द्रव्य के बिना पर्याय और पर्याय के बिना द्रव्य एक क्षण कभी दांया और कभी बाया । इससे यह फलित नहीं किया भी नहीं रह सकते। यह ठीक है कि द्रव्य एक है और जा सकता कि एक ही पैर से चला जाय अथवा दोनो पर्याय अनेक हैं, द्रव्य अविनाशी है और पर्याय विनाशी पैरो को साथ मिलाकर मेढक के समान उछलते हुए चला है। पर्याय एक के बाद एक आती है परन्तु द्रव्य उन जाय । चलना तभी बनता है जब दोनों पैरों की अपेक्षा समस्त पर्यायों में अनुस्यूत रहता है। द्रव्य को सामान्य रक्खी जावे और एक को पागे तथा दूसरे को पीछे किया और पर्याय को विशेष कहते है। यही सामान्य विशेषाजावे।
त्मक पदार्थ प्रमाण का विषय होता है। द्रव्य का कथन