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अनेकान्त एक मादर्श पत्र
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वर्ष अंक समय
लेख का शीर्षक तीन सम्पादक विद्वान् भी इसी तरह प्रत्येक मंक में अपना १५ ३ अगस्त ६२ मंगलोत्तम शरण पाठ
कम से कम एक लेख अवश्य देते रहें तो लेख जुटाने में १८ २ जून ६५ क्षपणासार के कर्ता माधव
विशेष परिश्रम नहीं उठाना पड़े मोर अंक भी बिल्कुल
ठीक समय पर निकल जाये । हम तो उस मुदिन की चन्द्र १६ १ अप्रेल ६६ ज्ञानतपस्वी गुणिजनानु
प्रतीक्षा में हैं । जब कि पत्र द्वैमासिक से पुनः मासिक
हो जाय । रागी बाबू सा.
'अनेकान्त' की फाइलें बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । अनुचातुर्मास योग
सघान-प्रेमी विद्वान इन फाइलों का उपयोग करते रहते हैं २० २ जून ६७ राजाश्रुणिक या बिम्बसार
और अपने निबंधों एवं ग्रंथों में यत्र तत्र प्रमाण रूप में २१ १ अप्रेल ६८ प्रतिष्ठा तिलक के कर्ता
इनका उल्लेख भी करते रहते है इससे इनकी उपयोगिता नेमिचन्द्र का समय
प्रामाणिकता और लोकप्रियता का संकेत मिलता है। २१ ६ फरवरी ६८ सरस्वती पुत्र मुख्तार सा०
हर सस्कृत विद्वान को ये फाइलें रखना बहुत ही 'अनेकान्त' पत्र से अनेकों ने अपने ज्ञान का संवर्द्धन अावश्यक हैं जो भी फाइले उपलब्ध हो उन्हें अवश्य मगा और परिमार्जन किया है बहुतों ने लेख लिखना और सपा- लेना चाहिए अन्यथा शुरू के कुछ वर्षों की तरह आगे की दन करना तक सीखा है।
भी फाइले मिलना मुश्किल हो जायेगा। यह समाज का ठोस और निर्भीक पत्र है फिर भी
प्रत्येक विद्वान्, स्कालर, ग्रेजुएट, सरस्वती भवन, इसकी ग्राहक संख्या कम है इससे इसकी महत्ता कम नहीं मन्दिर प्रादि को पत्र का ग्राहक हो जाना चाहिए इससे समझनी चाहिए, क्योंकि रत्नों के खरीददार और पारखी
पत्र को सहयोग मिलकर वह समुन्नत बनेगा तथा पाठकों अत्यल्प होते है।
की और भी सेवा कर सकेगा इस तरह परस्पर लाभ ही , इसमे भरती के लेख नही दिए जाते किन्तु शुद्ध इति- होगा। हास और शुद्ध सिद्धान्त आदि विषयक लेख ही दिए जाते
इसमें सस्कृतादि भाषाओं के सैकड़ों, प्राचीन, विविध, है व्यर्थ के विवाद और विसवादों से यथाशक्य दूर रहकर सून्दर स्तोत्र भी प्रकाशित होते रहे हैं अगर कोई महानुसमाज को उचित मार्ग दर्शन किया जाता है।
भाव "अनेकान्त" की फाइलों से उन्हे सकलित कर अलग रूढिवादिता और चाटुकारता से दूर रहकर पत्र पुस्तक रूप मे छपाये तो एक नवीन स्तोत्र सग्रह उपयोग ने सदा अपनी नीति निर्भीक और उदार रखी है । मुख्तार में आ सकता है। सा० और बाबू छोटेलाल जी सा० के स्वर्गवास हो जाने अनेकान्त मे विद्वद्भोग्य खोजपूर्ण सामग्री के अलावा के बाद भी पं० परमानन्द जी शास्त्री ने पत्र स्तर को नही जनसाधारण के लिए भी अनेक पौराणिक कथाये, उद्बोधक गिरने दिया है बल्कि पर्याप्त परिश्रम के साथ इसके गौरव कहानियां और सरस कवितायें भादि भी प्रकाशित को अक्षुण्ण रखा है और बराबर पत्र को निकाल रहे है। होती रहती है अतः सभी को इसका अवश्य ग्राहक होना प्रत्येक अंक में शास्त्री जो का कम से कम एक लेख अवश्य चाहिए। रहता है यह बडी खुशी की बात है। अगर पत्र के अन्य हम पत्र की समुन्नत की शुभकामना करते हैं। *
कंचन निजगुण नहिं तजे, वान हीन के होत। घट घट अंतर प्रातमा सहज स्वभाव उदोत ॥१७ पन्ना पीट पकाइये, शुद्ध कनक ज्यों होय । त्यों प्रगटे परमात्मा, पुण्य-पाप-मल खोय॥ -बनारसीदास