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२५८, वर्ष २२ कि०५
अनेकान्त
केन्द्रीयभूत कर लेता है और वहीं से सम्पूर्ण शरीर का को शरीर का रूप कहा जाता है, जबकि अन्य विवक्षा संचालन करता है, तो फिर प्रश्न उठता है, कि उत्पन्न से यदि कोई बनाई जाए, शरीर को प्रात्माकार रूप भी हो कर चैतन्य क्या अपने मूल शारीरिक अवयव से सर्वथा कहा जा सकता है। इस प्रकार शरीर और प्रात्मा के पृथक हो जाता है ? यदि यह प्रयक हो जाता है और प्राकार एक दूसरे से पैदा नहीं होते, मपितु विवक्षित होते अपना स्वतन्त्र अस्तित्व धारण कर लेता है, तो क्या स्व. हैं। पैदा तो वे अनादिकालीन पारस्परिकता से स्वय होते तन्त्र अस्तित्व द्रव्य के प्रतिरिक्त भी किसी का हो सकता हैं और स्वतः ही अनेकाकार रूप परिणमित होते जाते हैं । है ? निश्चित ही नहीं, गुण, जैसा कि प्रात्मा की चार्वाक प्रब प्रश्न माता है निर्वाणावस्था में प्रात्मा के जैसे विचारक मानते हैं अपने द्रव्य से पृथक अस्तित्व नहीं आकार का। इस प्रश्न का सुलझाव तभी ठीक प्रकार हो रख सकता । मत: न्यायतः मात्मा अपने उत्पन्नकती अंग सकता है जबकि हम अब तक की कुछ ताकिक प्रस्थासे पृथक हो कर कहीं का अन्यत्र केन्द्र भूत नहीं हो पनामों को कस कर पकड़े रहें, अन्यथा अर्थातर हो जाने सकता। उसे अपने जनक प्रगों के साथ पूर्ण प्रदेशी रूप में की पूरी सम्भावना है। अतः आइये उन स्थापनामों को व्याप्त रहना मावश्यक है । इस प्रकार चार्वाकों के अपने एक बार पुनः स्पष्ट करले और स्वीकार करलें। न्याय के अनुसार ही प्रात्मा स्वदेह प्रमाण है। देहेतर स्थापना सं० १-द्रव्य सत् है, सत् द्रव्य है । प्रमाण न्याय सगत नहीं ।
२-जो सत् है वह असत् नहीं हो सकता और सीधी सी बात है, कि जब आत्मा भाकार उसके
ऐसा ही विलोम । अथवा सत् तत्वतः विनष्ट सदस्वरूप होने की दूरष्ट्रया मानना आवश्यक है, साथ ही
नहीं होता। उसके शरीर के साथ पारस्परिकता भी अभिप्रेत है, तो
३-सत् देश-काल सापेक्ष है, अत:उसके प्राकार-प्रदेशों और शरीर के प्राकार-प्रदेशों को एक
(क) वह साकार है, ही मानने में झिझक क्यों? दोनों ही वस्तु-सत्य एक
(ख) वह चिन्तनीय है, विधेय है। क्षेत्रावगाही होकर एक प्राकार का सृजन करते है, जिसके
४-द्रव्य की तात्विक सत्ता है, अतः द्रव्य तत्व मात्मगत स्तर पर अमूर्त या शून्याकार और शरीर गत
रूप से स्वागत है मौर पर निरपेक्ष भी। स्तर पर मूर्त या स्थूलाकार की संज्ञा प्रमाणित होती है। अब इन स्थापनामों के दार्शनिक औचित्व की ऊहापोह व्यवहार दृष्टि मे उक्त प्रात्म-दैहिक आकार एक ही है, में तो यहां नहीं जाना है, अपितु यह मान कर चलना है जबकि तत्व-दृष्टि मे वे दो हैं। कर्म-ग्रंथियों का प्रणयन कि जैन दर्शन इनके प्रौचित्य को स्वीकार करके चलता इन्हीं दोनों माकारों की पारस्परिकता का परिणाम है। है। इनके दार्शनिक प्रौचित्य की ऊहापोह का एक अलग मात्म-प्रदेश अनादि काल से शरीर-प्रदेशों से ही अनुस्यूत विषय ही है । इन स्थापनामों की दृष्ट्या प्रात्मा की निर्वाया परिमाणित होते पाये हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं, णावस्था के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न उठते हैं। उसमें शरीर कि प्रात्म-प्रदेश पोद्गालिक शरीर प्रदेशों से तत्वतः पैदा
का अत्यन्त क्षय हो जाता है, फिर आत्मा के प्रकार की होते पाए हैं। पैदा तो तत्वतः कोई किसी से पैदा नहीं
क्या स्थिति रहती है ? जैनों के लिए इसका अन्तर कोई होता लेकिन प्रदेश की परिभाषा पुद्गलाणु की अपेक्षा से
अधिक पेचीदा नहीं। पहले ही कहा जा चुका है, कि संसारी ही की जाती है । यानी एक प्रदेश भाकाश का वह घेरा
अवस्था में दो माकारों को एकाकारिता होती है । मात्मा है जोकि एक पुद्गल परमाणु से माच्छादित हो जाता
का शून्याकार एक भोर तो शरीर का स्थूलकार दूसरी है"। इस प्रकार प्रदेश की सम्बोधनों का पुद्गल-सापेक्ष
पोर । निर्वाण में जब शरीर का स्थूलकार क्षय हुमा, तो होने के कारण मात्मा के माकार का निर्धारण शरीरकार
प्रात्म-द्रव्य का शुन्याकार शेष रह गया । द्रव्य होने के
कारण उसका तो विघटन नहीं माना जा सकता । प्रतः .११.वही ५-१४
सिद्ध केवल शून्याकार रूप होता है। मब प्रश्न उठता है