________________
साहित्य-समीक्षा
२६३
महा
यह सब अनुसन्धान का विषय है। फिर भी विरोधी और उससे जो विभक्त हमा उसे हो अर्वाचीन कहा जा सकता बाद में प्रविष्ट उन घटना-क्रमों का तालमेल बैठाने का है। दूसरे महावीर के बहुत समय बाद सम्प्रदाय बनें। सहयोग मिल सकता है।
क्योंकि महावीरके बाद तीन केवली मोर पांच श्रुत केवली महावीर और बुद्ध के परिनिर्वाण काल पर अच्छा हुए, अन्तिम श्रत केवली के समय दुभिक्ष पड़ने के बाद विचार किया है और महावीर का निर्वाण काल ५२७ मतभेद होने के बाद सम्प्रदाय बने होंगे। ऐसी स्थिति में ईस्वी पूर्व और बुद्ध का निर्वाण समय ५०२ ईस्वी पूर्व उक्त कथन की प्रामाणिकता नहीं रहती। ये पट्टावलियां निर्धारित किया है। जो संगत जान पड़ता है। अब से कब बनीं इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख देखने में नहीं 'बहुत वर्ष पहले मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी ने भी सन् प्राता । जो सामग्री उपलब्ध नहीं उसके सम्बन्ध में केवल १९२६ में अनेकान्त के प्रथम वर्ष की प्रथम किरण में अनुमान किया जा सकता है। प्राचीन प्रमाणों के अनुसंमहावीर और उनका समय-सम्बन्धी लेख में यही समय घान करने मे पट्टावलियां भी उपयोगी हो सकती है। अनेक प्रमाणो के आधार पर निश्चित किया था। इससे ऐतिहासिक क्षेत्र में उनकी महत्ता है ही। इस तरह सब प्रचलित वोर निर्वाण संवत सही जान पड़ता है। सामग्री के संकलित हो जाने से जैन इतिहास के निर्माण
ग्रन्थ में दोनों तीर्थकर्तामों के अतिरिक्त तात्कालिक में सरलता हो सकती है। इस प्रयास के लिए सम्पादक अन्य तीर्थकरों के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला है और प्रकाशक धन्यवाद के पात्र है। तत्कालीन राजामों का भी परिचय दिया है, इस तरह
(३) प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भंडार ग्रन्थ-सची मुनि जी ने यह ग्रन्थ गवेषणा पूर्वक लिखा है। मुनि जी -(भाग १) सम्पादक डॉ. नरेन्द्र भानावत, प्रकाशक, अच्छे लेखक, विद्वान और वक्ता है । अथ के परिशिष्ट में श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, लाल भवन चौड़ा रास्ता, पालि ग्रन्थों के वे मूल अवतरण भी दिये है उनसे ग्रथ की जयपुर-३ मूल्य सजिल्द प्रति का २५) रुपया । प्रामाणिकता बढ़ गई है। प्राशा है, मुनि जी अन्य दो इस ग्रंथ में स्थानकवासी सम्प्रदाय के ३७०० के लगभागों को भी पूरा करने का प्रयत्न करेगे। प्राचार्य तुलसी भग ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की गई है । शेष ग्रथों की सूची गणी और उनके शिष्यों की गतिविधियां तथा कार्य करने बाद में प्रकाशित होगी। सूची के अवलोकन करने से की क्षमता प्रशसनीय है। इसके लिए मुनि श्री नगराज स्थानकवासी सम्प्रदाय की ज्ञान सामग्री का यथेष्ट अनुजी धन्य वादाहं हैं । ग्रंथ समयानुकूल उपयोगी है। इसके भव हो जाता है। स्थानकवासी सम्प्रदाय के पास अनेक अन्वेषक विद्वानों और लायबेरियों को मंगा कर अवश्य । शास्त्र भण्डार हैं, हो सकता है उनमें कोई महत्व का पढ़ना चाहिए।
प्राचीन ग्रंथ मिल जाय । पर यह सब ग्रंथ सूची के व्यव(२) पट्टावली प्रबन्ध संग्रह-संकलयिता व संशोधक स्थित होने पर ही हो सकता है। डा. नरेन्द्र भानावत प्राचार्य श्री हस्थिमल, सम्पादक डॉ० नरेन्द्रभानावत, जी ने इसके सम्पादन में पर्याप्त श्रम किया है। माशा है प्रकाशक जैन इतिहास निर्माणसमिति, जयपुर । मूल्य समाज इसे अपनाएगी और प्रथ भण्डारो को व्यवस्थित १०) रुपया।
करने की इससे अधिक प्रेरणा मिलेगी। ऐसे सुन्दर संस्कप्रस्तुत ग्रन्थ में लोंकागच्छ परम्परा और स्थानक. करण के लिए डा० साहब धन्यवाद के पात्र हैं। वासी परम्परा, इन दोनों परम्परामों की १७ पट्टावलियों (४) युक्त्यनुशासनम् ( उत्तरार्ष ) हिन्दी विवेचन का संकलन किया गया है। पदावलियां यदि प्रामाणिक सहित-सम्पादक मुल्लक शीतलप्रसाद जी, विवेचक हों तो उन पर से महावीर से अब तक की परम्परा का पं० मूलचन्द्र जी शास्त्री, प्रकाशक दि. जैन पुस्तकालय, इतिवृत्त संकलित किया जा सकता है। इनमें दिगम्बर सांगानेर (जयपुर), पृष्ठ संख्या २१४, मूल्य पोष्टेज सहित सम्प्रदाय की उत्पत्ति का जो कथन दिया हमा है बह १) रुपया। संगत नहीं जान पड़ता, कारण कि महावीर दिगम्बर थे, प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता प्राचार्य समन्तभद्र की अनुपम कृति