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२५६ वर्ष २२ कि.५
भनेकान्त
(३) विज्जदि केवलणाणं केवलसोख्यं च केवलं विरियं । किया है। चार्वाक तो स्पष्ट ही चैतन्य को देह-प्रमाण 'केवल दिठि प्रमुत्त पत्थित्त सप्पदेशत्तं ॥' मानते हैं। इन सारे उद्धरणों के प्रकाश में यह समझना
पति-(निर्वाणावस्था में) प्रात्मा केवल ज्ञान, तो अब मासान है कि जैनों द्वारा मान्य मात्मा का केवल सुख, केवल वीर्य, केवल दर्शन में विद्यमान होता प्राकारवाद कोई उनकी ही विभावना नहीं है । जैनों ने । है। तथा वह अमूर्त, पस्तित्ववान एवं सप्रदेशी होता है। मई तकालीन प्रचलित मातामों को kि
उपर्युक्त वणिति मात्मा सम्बन्धी अनेक घमो में सब संहति में निविष्ट करने का प्रयत्न किया है। से अधिक विवादास्पद एवं विलक्षण धर्म प्रात्मा का सप्र.
प्रात्मा के प्राकार को स्वीकारने के पीछे से पहली देशी अथवा देह-प्रमाण होना है। सामान्यतः यह सभी मानते
ताकिक पृष्ठ-भूमि द्रव्य की परिभाषा है । द्रव्य हैं। कि पात्मा भौतिक पदार्थों से भिन्न प्रमूतं मार के लक्षण में सत् का नामोल्लेख किया गया ।" चंतन्य स्वरूप है, किन्तु भौतिक शरीर के तुल्य प्राकार इस परिभाषा से यह फलित हमा, कि 'जो द्रव्य वान कैसे हो सकती है, जनसामान्य को समझाने में कठि
है वह सत् है।' फिर सत् की ताकिक और व्यावहारिक नाई होती है । परिणाम स्वरूप कोई-कोई जन जैन सम्मत
स्थिति क्या है ? यह भी स्वतः फलित होता है कि सत् भात्मा को चार्वाक सम्मत भौतिक पदार्थ के समान ही
वह है जो ज्ञान का साक्षात् विषय हो सके। यथार्थ ज्ञान मान लेते है। यद्यपि पह जैनों का पात्मा सम्बंधी प्राकार
का विषय तभी हो सकता है जब कि वह देश और काल बाद कोई उन्ही की मनः प्रसूत कल्पना नहीं है, बल्कि
में अवस्थित हो, क्योंकि बिना देश और काल में अवस्थित महावीर कालीन अन्य मतों में भी उसकी विभावना है।
हुए कोई विषय चितनीय नहीं हो सकता । देश-काल में कोषीतकी उपनिषद् में कहा है कि जैसे तलवार अपनी
अवस्थित का तात्पर्य है कि विषय का कोई न कोई म्यान में पोर अग्नि अपने कंड में व्याप्त है, उसी प्रकार
पाकार होना । साकारता दार्शनिक याथार्थ्य की अनिवार्य मात्मा अपने शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है। तैत्तिरीय उपनिषद में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय,
मनुमिति है।
अब समस्या यह है, कि जब द्रव्य के लिए सत्, सत् । विज्ञानमय, प्रानन्दमय, सभी पात्मानों को शरीर में
के लिए देश-काल सापेक्षता और देश-काल सापेक्षता प्रमाण बताया गया है। 'बृहदारण्यक' में पात्मा जो या
के लिए साकारता अनिवार्य है, तो प्रात्मा के सम्बन्ध में चावल के दाने के परिमाण की है। 'कठोपनिषद्' में
दो ही विकल्प संभव हैं । या तो मात्मा को स्वतन्त्र द्रव्य मात्मा को चंगुष्ठ मात्र घोषित किया गया है।''छांदोग्य'
माना जाये या न माना जाये। यदि माना जाता है तो में उसे बालिस्त प्रमाण माना गया है। फिर जब इन
उसकी अनिवार्य अनुमिति अथवा उसका साकार होना सभी विभावनामों में ऋषियों को कुछ असंगति दूरष्टि
मानना पावश्यक है । जब उसे साकार माना जाता है तो गोचर हुई तो फिर विभिन्न उपनिषदों में प्रात्मा को
उसे प्राकाश की अपेक्षा कितना प्रदेशो माना जाए। यह मण से भी अणु और महान से भी महान् मानकर संतोष
प्रश्न सहज ही उठता है, जिसे उत्तरित करने के लिए किया गया। बौद्धों ने भी पुद्गल को देह-प्रमाण स्वीकार
कभी प्रात्मा को शरीर प्रमाण, कभी अंगुष्ठमात्र, कभी ३. नियमसार, १८१
बालिस्त प्रमाण भौर कभी अणु प्रमाण माना गया । जैनों ४. कौषीतकी०, ४-२०
का कहना है कि जब प्रात्मा का प्राकार मानना मावश्यक ५. तैत्तरीय०१-३ ब्रह्मनन्दन बल्ली ५ अनु० पर्यन्त । सानो उसे शरीराकार तल्य एक क्षेत्रावगाही मानना ६. बृहदा०, ५-६-१
न्याय संगत हैं, क्योंकि यदि हमने प्रात्मा को शरीराकार ७. कठो०, २-१-१२ ६. देखिये दलसुख मालवणिया कत भात्म मीमांसा पृ. ४५
के प्रदेशों से अधिक मान्य किया तो उसके उन अतिरिक्त ६.कठो. १-२-२०, छान्दो० ३-१४-३, श्वेता,
प्रदेशों में उनका शारीरिक पाधार क्या माना जाएगा? ३-२०, मैत्री०६-३८
१०. तस्वार्थ सूत्र, ५-२६