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मात्मा का देह-प्रमाणत्व
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कि उक्त शून्याकार कितने प्रदेश प्रमाण माना जाए? हेतु का तो अत्यन्त प्रभाव हो गया, फिर बिना हेतु स्थलकार तो अब निःशेष हो चुकता है, जिसकी अपेक्षा के प्राकारान्तरण कैसा ? स्थापना स. दो के प्राचार लेकर अब तक शून्याकार के प्रवेश निर्दिष्ट किए जाते रहे, पर उसके प्राकार का प्रत्यन्त विनाश स्वीकारा नहीं तो फिर क्या उक्त विवक्षा के प्रभावमें मात्माकार को जा सकता। बिना हेतु के प्राकारान्तरण मानना न्याय अप्रदेशी पथवा सम्पूर्ण लोकाकाश प्रदेशी कह दिया जाए? युक्त नहीं, अत: फिर यही विकल्प शेष रहता है कि प्रप्रदेशी कहने में कठिनाई यह है, कि अभी तक उसकी सिद्धावस्था में वही माकार नित्य हो जाता है जो संसारासप्रदेशता सत् कही गई थी भोर वह सप्रदेशता सत् के वस्था के अन्तिम क्षण पर विद्यमान था। सिद्धाकार के लिए प्रोवश्यक भी मानी गयी थी (स्थापना सं. ३), प्रदेश निर्धारण में इस प्रकार एक और पूर्व शरीर की फिर उक्त सत् की सप्रदेशता सहसा असत् कह देने से विवक्षा ली जाती है और दूसरी पोर लोकाकाश की क्या स्थापना सं०१व २ वाद नही हो जाता? और फिर प्रदेश संख्या की विवक्षा सिद्धात्मा को विश्व-व्यापक कहने बैसाकि पूर्व में स्पष्ट भी किया, प्रात्माकार की सत्रदेशता में यह विवक्षा काम करती है कि चूंकि ज्ञानावरणीय कर्म शरीर की उपज नहीं है। वह तो केवल शरीराकार द्वारा का क्षय हो जाने से अखिल वस्तु-सत्य समवेत रूप से विवक्षित मात्र थी। सप्रदेशता तो "सद्रव्य लक्षणम्" प्रात्म-ज्ञान का विषय हो जाता है और उस प्रकार उसका की अनुमति है। शरीर की तो नहीं। उसी प्रकार जैसे ज्ञान विश्व व्यापक हो जाता है। इस विवक्षा से ज्ञानकि प्रखंड माकाश को अंगुल, बालिस्त प्रादि की विवक्षा रूप में प्रात्माकार विश्व रूप से मान्य होता है, जबकि से प्रांका और कहा जाता है, पैदा तो नहीं किया जाता, प्रकाश प्रदेशों की गणना की अपेक्षा से वह पूर्व शरीराउसी प्रकार भात्माकार को शरीरकार से प्रांका और कहा कार रूप ही होता है । प्रात्मा के इस सप्रदेशी विशेष को जाता है। वस्तुतः भात्माकार शरीराकार के अनुसार तत्वार्थसूत्रमें क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक ढलता नहीं, अपितु अपने भाव-कर्मोदय के निमित्त से बुद्ध-बोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और प्रल्पवह स्वयं प्राकार परिवर्तन करता हमा पुदगल-परमाणों बहुत्व" इन बारह अनुयोगों की विवक्षा से समझने की को तदुनसार संगठित होने का निमित्त देता है । इस प्रेरणा की है। इस प्रात्म-स्वरूप को समझने के लिए प्रकार उभयाकार एकाकार हो जाते हैं। इससे न्यायतः अनेकानेक विवक्षानों की मर्यादा बराबर ध्यान में रखने यह तय होता है कि निर्वाणावस्था में सिद्धात्मा प्रप्रदेशी की आवश्यकता है, जिसमें तनिक सी भी चूक हो जाने नहीं हो जाती।
पर गहन से गहन भ्रांति हो जाने की सम्भावना रहती है। चूकि प्रात्मा का प्रप्रदेशी होना न्याय-विरुद्ध है, तो
प्रात्मा की इस सप्रदेशता में एक बात और पाड़े इसके प्रप्रदेशीपन का परिणाम कितना माना जाए?
पाती है जो जन सामान्य को भ्रमित करती है, कि कुछ के अनुसार उसका शून्याकार विश्व रूप मान लेना
एक ही प्राकाश-प्रदेश में अनेक प्रात्मानों और शरीरों का उचित है । कुन्दकुन्द मादि अनेक जैनाचार्यों ने भी नि
अवगाहन किस प्रकार हो जाता है ? जबकि हम साफ श्चय नय से उसे लोकाकाश के प्रदेश-संख्या के तुल्य व्या
देखते हैं कि एक जगह जहां एक मनुष्य खड़ा है दूसरा पक माना है । परन्तु यह विकल्प एकान्त रूप से सब के
खड़ा नहीं हो सकता, फिर भली सारी प्रात्माएं सिद्धगले नहीं उतरता। इसका न्याय यह है कि अब तक प्रात्म
लोक में एक साथ कैसे रह लेती हैं और किस प्रकार द्रव्य के प्राकार का मन्तरण उससे सम्बद्ध नाम और मायु
अपनी वैयक्तिकता बनाए रखती हैं ? जहां तक एक ही कर्म के निमित्त से होता था। चूंकि निर्वाण प्राप्ति
प्रदेश में अनेक प्रात्माएं रहने का प्रश्न है, वह कोई प्रसके प्रथम क्षण पर उक्त कर्मों का प्रत्यन्त विनाश हो गया।
म्भव बात नहीं। जब भौतिक विज्ञानवादी जैसा स्थल तो उस क्षण मात्मा का जो प्राकार-चारण था उससे अन्य माकार में मन्तरण का हेतु क्या कहा जाए? वस्तुतः १२. वही १०-९