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२६०, वर्ष २२ कि. ५
अनेकान्त
सिद्धान्त ईथर, गुरुत्वाकर्षण, परमाणु, प्रकाश प्रादि सारे 'क्या' का कोई स्थान नहीं है। उपनिषदों में भी पात्मा पदार्थों को एक ही प्राकाश-प्रदेश में अवस्थित मान कर को
अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा किसी प्रकार के विरोधाभास की आशंका नहीं करता, तो
गुहायाम् निहितोऽस्य जन्तोः।" फिर प्ररूपी प्रात्मानों का ही एक क्षेत्र में रहना शक्य किस
(प्रति-यह अणु से भी अणु और महान से भी प्रकार हो सकता है ? इसके साथ ही साथ एक-क्षेत्राव
महान प्रात्मा इस जीव के अन्तःकरण में स्थित है) गाहन प्रदेश-विवक्षा सहा कहा जाता है। तत्वनववक्षा स के रूप में अनंत संकोच-विस्तार गुण युक्त कल्पित किया नहीं। तत्व-विवक्षा से उनकी वैयक्तिकता की अक्षुण्णता
ही है । अब कोई पूछे, कि आत्मा ऐसा सूक्ष्म पोर महान भी अशक्य है (स्थापना संख्या ४ के द्वारा)। बहुत से क्यों है तो यह प्रश्न ही गलत है। प्रात्मा सूक्ष्म से भी दीपकों का प्रकाश एक ही कमरे में व्याप्त होकर प्रदेश- सक्षम और महान से भी महान प्राकार वाली होती हैदूरष्टि से एक ही प्रकाशाकार की सज्ञा से अभिहित होता यह एक तथ्यात्मक वचन है, जिसे जसा का तैसा स्वीकाहै, किन्तु दीपकों की तत्व-दूरष्टि से प्रत्येक दीपक के रना ही न्याय-संगत है। जैनों ने इसलिए संकोच-विस्तार प्रकाश की वैयक्तिकता अक्षुण्ण है, जो कभी दीपक बुझा लक्षण वाला अगुरुलघुत्व गुण नित्य आत्म-द्रव्य के साथ ही या हटा कर अलग की जा सकती है। अतः अरूपी प्रात्मा सन्निविष्ट कर दिया, जिसमे वस्तुतः शका करने की कोई के क्षेत्र में अन्य द्रव्यों का प्रवगाहन न तो न्याय-विरुद्ध है गुजायश नहीं रहती। ऐसा करना वैदिक मान्यता के भी और न प्रत्यक्ष-विरुद्ध ।
अति निकट पड़ता है। अब एक शंका अगुरु-लघुत्व गुण के बारे मे उठाई
इस प्रकार प्रात्मा सम्बन्धी जैन दूरष्टि पूर्णतः वस्तुजाती है, जिस गुण के आधार पर प्रात्मा के प्रदेशाकार मे
परक है। उसे अनेक विवक्षाओं से समझकर एक ऊहात्मक संकोच-विस्तार की क्रिया सम्पन्न होती है। यह संकोच
समष्टि मे गूथना जैन दर्शन को समझने का सम्यक प्रयास विस्तार क्यों और कैसे होता है ?-जैन इसे तथ्य रूप में
कहा जा सकता है।
कहा जा सक स्वीकार करते हैं । तथ्य तत्व-रूप है, जिसके स्वीकार में १३. श्वेता० ३-२०, कठो० १-२-२०
ज्ञानपीठ साहित्य-पुरस्कार इस वर्ष वरिष्ठ कवि :
श्री सुमित्रानन्दन पंत को समर्पित
विज्ञान भवन, नई दिल्ली के सभागार में प्राज संघ्या तीन वर्षों में तीन पुरस्कार समर्पण समारोह सम्पन्न समय साढ़े पाच बजे भारत का सर्वोक्च साहित्य पुरस्कार हो चुके हैं। पहला पुरस्कार १९६६ मे श्री गोविन्द शंकर राष्ट्रपति श्रीवैकटगिरि वराहगिरि द्वारा हिन्दिी के वरिष्ठ कुरूप को उनके मलयालम काव्यसग्रह "मोडक्कुषल', पर कवि श्री सुमित्रानन्दन पंत को भेंट किया गया। भार- भेंट किया गया, दूसरा १६६७ में श्री ताराशंकर तीय भाषामों की सर्वश्रेष्ठ कृति के लिए प्रति वर्ष उप- वन्द्योपाध्याय को उनके बांग्ला उपन्यास "गणदेवता" पर, लब्ध, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रवर्तित यह पुरस्कार इस और तीसरा पिछले वर्ष डा. कु. वे. पुट्टप्पा मोर डा. उमा वर्ष कवि श्री पंत को उनके काव्य संग्रह "चिदम्बरा" पर शंकर जोशी को उनकी कृतियों, कन्नड़ महाकाव्य "श्री समर्पित किया गया।
रामायण-दर्शनम्" और गुजराती काव्य-संग्रह "निशीथ" यह चौथा पुरस्कार समर्पण समारोह था। पिछले पर सह-समर्पित किया गया।