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१८६ वर्ष २२ कि० ३-४
अनेकान्त
नन्द, नेमिचन्द्र प्रादि प्राचार्यों का समय क्या है और जानता है कि श्रद्धेय मुख्तार साहब, मुझे और प. उन्होने कौन-कौन से ग्रंथ बनाए ? इन सभी बातों का परमानन्दजी शास्त्री को अनेकान्त की सामग्री को जुटाने सप्रमाण प्रकाशन किया । जिन ग्रथों का दूसरे प्राचार्यों में कितनी शक्ति और ममय लगाना पड़ता था। किसीके ग्रथों मे उल्लेख है पर उपलब्ध नही है उनकी खोज किसी अडु की तैयारी मे तो हम तीनो का पूग ही समय का प्रयास भी अनेकान्त ने किया है । जैन धर्म की अहिंसा लग जाता था, मन्दिर के अन्य कार्य गौण हो जाते थे। का स्वरूप क्या है ? अनेकान्त स्याद्वाद और सप्तभगी लेकिन यह सत्य है कि सारी सामग्री शोध और खोजपूर्ण मे पारस्परिक क्या सम्बन्ध है और वे क्या है ? जैसे होती थी। जनवरी १९४८ से फरवरी ५० तक लगभग सैद्धान्तिक विषयों पर भी अनेकान्त, मे प्रकाश डाला दो वर्ष अनेकान्त' का सहसम्पादन हमने भी किया था। गया है। कहने का तात्पर्य यह कि 'जन हितैषी' ने जिस अतः इस अनुभव के आधार से यह कह सकते है कि शोधखोज का श्रीगणेश किया था, अनेकान्त ने उसे 'अनेकान्त' विद्वत्प्रिय और विद्रोग्य पत्र रहा है। यह पूर्णरूप दिया नये-नये लेखकों और विचारको को जन्म प्रसन्नता की बात है कि वह ग्राज भी अपनी मयांदा को दिया।
बनाए हुए है। __ यद्यपि जिस प्रकान्त' मासिक का चालीस वर्ष
अन्त मे अनेकान्त के वर्तमान सचालकों मे हमारा पहले उदय हुआ उसे उत्थान और पतन की अनेक अव-
का अनक अव- अनुरोध है कि जिन कार्यों को 'अनेकान्त' ने अपने जन्म
जो
काल के समय करने का सकल्प किया था उनमे से निम्नहै और बौद्धिक सामग्री दे रहा है। यदि वह लगातार कार्य अवश्य किए जाना चाहिए :... चाल रहता तो उसकी चालीस वर्षों की चालीस फाइलें १. लुप्त-प्राय जनग्रोंकी खोज, २. पूर्ण जैन होती। किन्तु उसकी बाइम ही फाइले हो सकी है। ग्रंथावली का सकलन, ३. जैन मूर्तियो के लेख मग्रह तात्पर्य यह कि वह प्राज बाईसवे वर्ष मे चल रहा है। क्षेत्रों और भारतवर्ष के समन्त जैन मन्दिरो की मूर्तियों इस बीच मे उसे आथिक कठिनाइयों आदि के कारण बन्द के सम्पूर्ण जैन लेखो का संग्रह), ४. जन ताम्रपत्र, चित्र होना पडा । यहाँ तक कि वह अब द्वैमासिक के रूप मे और सिक्को का सग्रह, ५. जैन मन्दिरावली (मूर्ति सकई वर्ष से निकल रहा है। सन्तोष यही है कि वह स्थादि-सहित-अर्थात् सब जगह के जैन मन्दिरो की पूरी बाधामो से जूझता हुमा भी अपना अस्तित्व ही बनाए सूची, ६. त्रिपिटिक प्रादि प्राचीन बौद्ध ग्रथो पर से जैन हए नहीं है अपितु महत्त्वपूर्ण सामग्री भी प्रस्तुत कर रहा इतिवृत्त जैन सम्बन्धी अनुकूल या प्रतिकूल सभी वृतान्त)
का संग्रह, ७. प्राचीन हिन्दू ग्रन्थो पर से जैन इतिवृत्त का २४ अप्रैल १९४२ से ५ मार्च १९५० तक वीर सेवा सग्रह प्रादि वे सब कार्य, जो अनेकान्त वर्ष १, किरण ६, मन्दिर और अनेकान्त से मेरा खास सम्बन्ध रहा है। मैं ७, १० ४१५-४१६ पर दिए गए है। .
[पृष्ठ १८४ का शेषास] वीर-सेवा-मन्दिर एक प्रसिद्ध शोघ सस्था है। जिसने और देश की प्रगति की प्रतीक होती है। जैन संस्कृत के लिए बड़ा योगदान दिया है। उसके द्वारा दिगम्बर समाज का सौभाग्य है कि उसमे ऐसा प्रकाशित साहित्य महत्वपूर्ण और ठोस है।
खोजपूर्ण पत्र प्रकाशित होता है, समाज को और विद्वानों वीर सेवा मन्दिर द्वारा किये गये कार्यों की कुछ को इसे अपनाना चाहिये तथा उसको ग्राहक संख्या में झलक इस इतिहास साहित्य प्रक से लग जावेगी। मै वृद्धि होना चाहिए। समाजके धनीमानी व्यक्तियो को ऐसे सस्था के इस प्रतिष्ठित पत्र की हृदय से शुभ कामना महत्त्वपूर्ण पत्रको प्रार्थिक सहयोग प्रदान करना जन सस्कृति करता है कि यह पत्र सदा विद्वानों का सन्मार्ग दर्शक बना की सेवा करना है। प्राशा है समाज इसे अवश्य सहयोग रहे, क्योकि विद्वानो की सूक्ष्म दृष्टि पूर्ण लेखनी ही समाज प्रदान करेगी, जिससे वह मासिक रूपमे प्रकाशित हो सके।