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जैनविद्या का अध्ययन-अनुशीलन : प्रगति के पथ पर
एम. ए., शास्त्री
प्रो० प्रेम
सुमन
जैन
जैन विद्या का श्रव्ययन-अनुशीलन पिछने पचास वर्षों मे काफी धागे बढा है। प्राचीन परम्परा के जैन विद्वानो ने एक ओर जहाँ जैन विद्या के ग्रन्थों को प्रकाश में लाने, उनका मूल रूप मे अध्ययन करने-कराने तथा अन्य अनेक प्राचीन संस्कारों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है, वहां उन्होंने जाने-अनजाने एक ऐसी पीढ़ी का भी निर्माण किया है, जिसने जैन विद्या के श्रध्ययन एवं पठन-पाठन को अनुमधानिक रूप प्रदान किया है। यह सन्तोष का विषय है कि अब जैन विद्या का अध्ययन परम्परागत एवं अधुनातन दोनो पद्धतियों से गतिशील हो रहा है। संगोष्ठी सेमिनार -शिविर
जैनविद्या के अध्ययन अनुसन्धान के क्षेत्र मे इधर कुछ समय से न केवल जैन अपितु जैनेतर विद्वान भी अध्ययन-रत हुए हैं। उनके इस रुझाण एवं लगन से स्पष्ट है कि भारतीय प्राचीन एवं सांस्कृतिक उपादानो के सम्पूर्ण अध्ययन के लिए जैन वाड्मय एव संस्कृति के अध्ययन की अनिवार्यता स्वीकार कर ली गई है । की जा रही है। इस सम्बन्ध मे व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनो प्रकार के अध्ययन प्रस्तुत किये गये है । यथा
मई १९६० मे विश्वविद्यालय अनुदान प्रायोग द्वारा शिवाजी विश्वविद्यालय कोल्हापुर मे एक त्रिदिवसीय 'प्राकृत- सेमिनार' का प्रायोजन हुआ। इसमें जैन विद्या के लगभग ४० अध्येता सम्मिलित हुए, जिन्होंने प्राकृत भाषा एवं साहित्य के अध्ययन-अनुसन्धान एवं प्रचार-प्रसार के कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए ।
अक्टूबर १६६८ में अ० भा० प्राच्य विद्या सम्मेलन के अवसर पर भारतीय ज्ञानपीठ के तत्वावधान मे वराणसी में 'जैन साहित्य संगोष्ठी का आयोजन किया गया। लगभग ५० विद्वान इसमे सम्मिलित हुए। जिन्होने जंन विद्या के अध्ययन अनुशीलन आदि से सम्बन्धित विविध
पक्षो पर सामूहिक रूप से विचार-विमर्श किया। अध्ययन में जुट जाने की शक्ति का सम्बर्द्धन किया ।
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सगोष्ठी के उपरान्त सागर मे वर्णी स्नातक परिषद् के तत्वावधान मे १ जून तक 'स्नातक शिविर' का प्रायोजन किया गया। इसमें विभिन्न विश्वविद्यालयो तथा शिक्षा संस्थाप्रो से सम्बद्ध स्नातक शामिल हुए, जिनमें जैन साहित्य दर्शन, इतिहास, प्राचीन भारतीय संस्कृति, पुरातत्व, कला, भाषाविज्ञान एवं गणित के विशेषज्ञ तथा अनुसन्धित्सु थे। शिविर काल में शोध कार्य मे सलग्न स्नानको ने अपने कार्य को प्रागे बढाया एवं अग्रिम अध्ययन की योजना बनाई। उन्होंने भारत तथा विदेशों में मानविकी और विज्ञान से सम्बन्धित जैन विद्यार्थी के अध्ययन अनुसन्धान में सक्रिय रूप से इन विद्वानों, शोधा
एव गस्याओं में परस्परिक सम्पर्क, सहयोग एवं शोध प्रवृत्तियों को गति देने के उदय से 'जैनालाजीकल रिसर्च सोसाइटी' की स्थापना का भी निर्णय लिया ।
शिविर के तुरन्त बाद २३ जून से २७ जून ६९ तक पूना विश्वविद्यालय के संस्कृत प्रगति श्रध्ययन केन्द्र मे 'प्राकृत- सेमिनार' का आयोजन हुआ। इसमें लगभग ४० विद्वान सम्मिलित हुए प्राकृत भाषा और साहित्य विष यक ३० निबन्ध पाठ तथा दो विशिष्ट भाषण हुए। यह सेमिनार कोल्हापुर में प्रायोजित प्राकृत सेमिनार का अगला चरण था ।
इस प्रकार इन सेमिनार, सगोष्टी पोर शिविर के पायोजनो ने जनविद्याओं के अध्येताओं को एक ऐसा अवसर दिया कि वे एक साथ मिल-बैठकर जैनविद्या के अध्ययन-अनुशीलन की प्रगति के सम्बन्ध में सक्रिय हो सके। उनकी पारस्प रिक प्रदेशगत, भाषागत पादि अनेक दूरियाँ इन सम्मे लनो से दूर हो गयी। यह एकरूपता निश्चित ही जैनविद्या के प्रचार-प्रसार के लिए शुभ संकेत है।