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संस्कृति को सीमा प्रो. उदयचन्द्र जैन एम. ए. दर्शनाचार्य
व्यक्ति, समाज, देश और राष्ट्र सभी की एक सीमा सीमा का खिचाव अर्थात् निर्माण कर देता है। होती है। किसी एक पहल उद्देश्य को लेकर होतो है, भौतिकता का प्राधुनिक रूप चित्रित करके विचारोंकिसी की जनहित के लिए । मनुष्य ने मनुष्यत्व पाने की कथनों को एक सूत्र में पिरो देता और घोड़े की लगाम सीमा पाई है उसमें जितने गुण-प्रोगुण होते है वे इसी से की तरह कसकर बांध देता। हाँ; पर बन्धन से यह सम्बध्य होते हैं, खीचा-तानी भी इसी के अन्दर मौजूद तात्पर्य कदापि नही है कि वह व्यक्ति को जकड़कर रखे रहती है। रही संस्कृति, वह भी किसी के साथ जुड़ी हुई या केन्द्रित करे। यद्यपि केन्द्र एक बिन्दु की तरह माना होती हैं । संस्कृति, संस्कार है और सस्कार सस्कृति है। गया है, वह छोटी घिरी हुई होती है इसलिए कहा जा संस्कृति परम्परागत उस सुन्दर सरिता के समान है
सकता है कि इसका संतुलन ठीक नहीं है, यदि इसी परजो निरन्तर कोलाहल करती हुई प्रवाहित होती रहती
ज्यामिति तौरतरीके से विचार-विमर्श किया जाय तो है । संस्कृति को राष्ट्र की सीमा में नही बाधा जा सकता
निश्चित ही सूक्ष्मता, दीर्घता की ओर बढ़ती हुइ दिखलाई है। उसका सम्बन्ध इस प्रकार है, जैसा कि :-मैथ्यू
पडेगी। यही सस्कृति का हिसाब है। विषय छोटा होता मानल्ड ने कहा है :-"Culture is to know the
हुए भी विचार की दृष्टि से इतना लम्बा है कि उसे सम
झना टेढी खीर है, फिर उसका विचार-विमर्श तो रहा best that has been said and thought in the world." अर्थात् विश्व के सर्वोच्च कथनो और विचारों
कोसों दूर । जिस प्रकार दूरी का समानुपात लगाना का ज्ञान ही सच्ची सस्कृति है। मनुष्य के विकास का
पड़ता है उसी प्रकार विषय का भी।
अभी व्यक्ति को चलना मात्र पाया है और वह उत्कृष्ट साधन संस्कृति हैं। संस्कृति सरलता और सयम को प्रवाहित करने वाली है।
चलता जाता है, पर उसे पता नहीं कि इस चलने मात्र से
क्या हम, हमारी संस्कृति, राष्ट्र-देश, समाज उस पथ को व्यक्ति का जन्म लेना मात्र ही या उसका विलीन पा सकता है जब तक व्यक्ति में मनन-चिन्तन की वास्तहोना ही नहीं, वह सव है उसकी एक नवीन जागृति ज्ञान विकता मौजूद रहती है। वही सच्ची, सही और जग की की कुजी, जिसे हम चाबी के नाम से सम्बोधन करते मनोखी तथा अनुभव करने के योग्य रह सकती है। एक हैं । वास्तविकता क्या है ? यह तभी जान या समझ क्रिया का लोप होता है और दूसरी क्रिया का उसी ओर सकते हैं जब हमें उसकी उपयोगिता का सही पता चले। फिर से प्रयोग होता है, वह तभी जब हम विषय से विषयद्यपि वह किंचित् मात्र के लिए जानता और अनुभव यान्तर नहीं होते हैं। जब तक सांस है तब तक क्रियाओं करता है। फिर भी सही रूप से नही । यह गलती हमारी का मौजद होना स्वाभाविक है, अन्यथा उसकी गति में कहो या समाज की, राष्ट्र की या देश की। सभी अपने- अवरोध हो जायगा, हलन-चलन की क्रिया पूर्ण रूप से अपने स्थान पर हैं। जिसने अपने माप उस लक्ष्य को समाप्त हो जायगी; सिर्फ रह जायगा शरीर वह भी मिट्टी विचारा तक नहीं, उसका समझना तो रहा दूर, मनन- का ढेला है, उसकी कीमत कुछ भी नही है । संस्कारों की चिन्तन कैसा; क्योंकि चिन्तन की कुछ कणिकायें होती हैं क्रिया बनी हुई है, सच्चाई स्रोत बह रहा है उसे रोकने वाला जो उसे संस्कृति के विकास की भोर बन्धन से मुक्त करा- कोई नहीं है। फिर भी ऐसा कहना अपने पापको धोखे में कर ले जाती हैं । एक दिन ऐसा माता है कि वह संगठित डालना है, गलत रास्ते की ओर ले जाना है। जब ऐसा रूप से कानूनी दायरे भादि को जान-पहचान जाता है। होगा तो हमारे पास कुछ नहीं रह जायगा, सिर्फ कपोलऔर सहारा लेकर पथ का वास्तविक प्रदर्शन करता है। कल्पनामों के सिवा । स्वयं अवलोकन का ढंग रीति-रिवाज उस मोर करके संयम की धारा कुछ ऐसी विचित्र जीव-सी है कि