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प्रनेकान्त
मनुष्य उत्पन्न होते हैं । वे लब्धपर्याप्तक होते है और उनका शरीर प्रगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण होता है । " मूलाराधना पृष्ठ ६३८" गोम्मटसार जीवकांड की गाथा ६३ में लिखा है कि - सम्मूच्छिम मनुष्य नपुंसक लिंगी होते है । इसी प्रसंग में इस गाथा की संस्कृत टीका में लिखा है कि"स्त्रियो की योनि, कांख, स्तन मूल और स्तनों के प्रत राल में तथा चक्रवर्ती की पटराणी बिना अन्य के मलसूत्रादि अशुचि स्थानों में सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते है |
श्री कुंदकुंदाचार्य सूत्रपाहुड में लिखते हैं कि -- लिगम्मिय इत्थीर्ण थणतरे णाहिकक्खदेसेसु । afrat सुमो का तासं कह होइ पव्वज्जा ।। २४ ।। अर्थ - स्त्रियों की योनि में, स्तनों के बीच में, नाभि मे और कांख में सूक्ष्म शरीर के धारक जीव ( सम्मूच्छिममनुष्य) कहे गये है । अतः उनकी महाव्रती दीक्षा कैसे हो सकती है ?
इस विषय में कवि द्यानतराय जी का निम्न पद्य देखिये
नाभि कांख में पाइये ।
नारि जोनि थन नर नारिन के मलमूत्तर में गाइये ॥ मुरदे में सम्मूच्छिम सैनी जीयरा । अलबषपरयापती दयार्घारि हीयरा ॥
"धर्मविलास” लोकप्रकाश ( श्वेतांबर ग्रन्थ) के ७वें सर्ग के श्लोक ३ से २ में लिखा है कि-
"मल, मूत्र, कफ, नासिकामल, वमन, पित्त, रक्त, राध, शुक्र, मृतक्लेवर, दंपत्ति के मैथुनकर्म में गिरने वाला वीर्य पुरनिर्द्धमन ( खाल चर्म, गंदी नाली), गर्भज मनुष्य संबंधी सब अपवित्र स्थान, इतनी जगह सम्मूच्छिम मनुष्यों २. जैनागम शब्दसंग्रह (अर्धमागधी- गुजराती कोश) में पृ० ३६८ पर इसी का पर्यायवाची "णगरनिद्धमण" ( नगरनिर्धमन) का अर्थ इस प्रकार दिया है— शहर का गंदा पानी निकालने का मार्ग, खाण । यहां दोनों अर्थ उपयोगी है, दोनों में सम्मूच्छिम मनुष्योत्पत्ति होती है ।
की उत्पत्ति होती है' ।
ऐसा झलकता है कि जैनधर्म के जिन फिरकों मे स्त्री मुक्ति मानी है उनके यहां स्त्रियों के नाभि, काँख, स्तन आदि अवयवों में सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति का कथन नहीं किया है।
इनकी उत्पत्ति अढाई द्वीप से बाहर नहीं है । क्योंकि जिन पदार्थों में इनकी उत्पत्ति होती है वे सब गर्भज मनुष्यों से सबंधित होते है ।
लोक मे भोगभूमि-कर्मभूमि के जितने भी मनुष्य होते हैं उनसे असंख्यात गुणी संख्या इन सम्मूच्मि मनुष्यो की ३. (i) जीवसमास की मलधारी हेमचन्द्र कृत संस्कृत वृत्ति (श्वे० ) में लिखा है— सम्मूच्र्च्छन– गर्भनिरपेक्षं वात पित्तादिष्वेवमेव भवनं संमूच्छंस्तस्माज्जाताः संमूर्च्छजा मनुष्याः एते च मनुष्यक्षेत्र एवं गर्भजमनुयामेवोच्चारादिषूत्पयंते नान्यत्र यत उक्तं प्रज्ञापनायाम् - "कहि णं भते ! सम्मुच्छिम मणुस्सा समुच्छति ? गोयमा ! तो मणुस्स खेत्ते पणया लीसाए जोयणसय सहम्सेस श्रद्धा इज्जेसु दीवसमुद्दे सु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए ग्रकम्मभूमीसु छप्पण्णाए प्रतर दीवेसु गभवक्कतिय मणस्साणं देव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेमु वा सिंघाणेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वासु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्क पोग्गलपरिसाडेसु वा थोपुरिस सजोएसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वे चैव प्रणुइएसु ठाणेसु संमूच्छिम मणुस्सा समुच्छंति, अंगुलस्स प्रसखेज्जइभागमित्ताए श्रोगाहजाए प्रसन्णी मिच्छादिट्ठी सव्वाहि पज्जत्तीहि श्रपजत्तगा तो मुहुताउया चेव कालं करेति, सेत्त सम्मुच्छिम मणुस्सा ।"
(ii) कह भयवं उववज्जेपणिदि मणुया सम्मुच्छिमाजीवा । गोयम ! मणुस्सखिसे णायन्त्रा इत्थ ठाणेसु ।। उच्चारे पासवणे वेले सिंघाणवंत पिसेसु । सुक्के सोणिय गयजीवकलेवरे नगर गिद्धमणे || महमज्जमंत मंखण थी संगे सव्व असुइठाणेसु । उप्पज्जति चयंति च समुच्छिमा मणुय पंचिदी ॥ ब्लेक टाइप में छपे शब्द अन्यत्र नहीं मिलते)
- विचारसार प्रकरण ( प्रद्युम्न सूरि ) जीवाभिगमे