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अनेकान्त
पायु होती है ? इसका उत्तर है कि-यहां प्रायु 'परिहीन' अठदस जनमि भरायो । दुख पायो जी भारी । पाठ का अर्थ है-एक उच्छ्वास के १८ भाग प्रमाण इन उल्लेखों में निगोद (एकेन्द्रिय) के एक श्वास में अन्तर्मुहर्त को स्वल्पायु निगोद की होती है।
१८ बार जन्म-मरण बताया है। इससे प्रायः सभी धिद्वानों (२) बनारसी विलास (वि० सं० १७००) के कर्म- तक ने एक श्वास मे १८ बार जन्ममरण करना निगोद प्रकृति विधान प्रकरण में
का लक्षण समझ लिया है जो भ्रान्त है, क्योंकि एक श्वास एक निगोद शरीर में, जीव अनत अपार ।
में १८ बार जन्ममरण अन्य पचस्थावरों और प्रसों में भी घरें जन्म सब एकठे मरहिं एक ही बार ॥६५ जो अलब्धपर्याप्तक है पाया जाता है अतः उक्त लक्षण प्रति मरण अठारह बार कर, जनम अठारह बेव, व्याप्ति दोष से दूपित है। तथा सभी निगोदों में श्वास के एक स्वास उच्छ्वास मे, यह निगोद की टेव ॥९६ १८ वें भाग मे मरण नही पाया जाता (सिर्फ अलब्ध(३) बुधजन कृत--"छहढाला" ढाल२
पर्याप्तकों में ही पाया जाता है, पर्याप्तकों में नही) प्रतः जिस दुख से थावर तन पायो वरण सको सो नाहिं।
पर तन पायो वरण सको सो नाहिं। उक्त लक्षण अव्याप्ति दोष से भी दूषित है। बार अठारह मरा औ, जन्मा एक श्वास के माहि ॥१ एकेन्द्रियों में महान् दुःख बताने की प्रमुखता से ये (४) दौलतराम जी कृत-छहढाला
कथन किए गए है । इन सब उल्लेखों में "लब्ध्यपर्याप्त" काल अनंत निगोद मझार, बीत्यो एकेन्द्रीतनधार ॥४ विशेषण गुप्त है वह ऊपर से साथ मे ग्रहण करना चाहिए एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मरयो भरयो दुखभार॥ “छह ढाला" ग्रंथ का बहुत प्रचार है यह विद्यार्थियों के (५) दौलत विलास-(पृष्ठ ५५)
जैनकोर्स मे भी निर्धारित है अत: इसके अध्यापन के वक्त सादि अनादि निगोद दोय में परयो कर्मवश जाय । निगोद का निर्दोष लक्षण विशेषता के साथ विद्यार्थियों को स्वांस उसांस मझार तहा भवमरण अठारह थाय ।। बताना चाहिए ताकि शुरू से ही उन्हे वास्तविकता का (६) द्यानतराय जी कृत पदस ग्रह
ज्ञान हो सके और आगे वे भ्रम में नही पड़ें। टीकाओं में ज्ञान विना दुख पाया रे भाई।
भी यथोचित सुधार होना चाहिए । भी दस माठ उसांस साँस में साधारण लपटाया रे, भाई. ग्रंथकारों ने इस विषय में अभ्रान्त (निर्दोष) कथन भी काल अनंत यहां तोहि बीते जब भई मंद कषाया रे, किए हैं, देखो :तब तूं निकसि निगोद सिंधु ते थावर होय न सारा रे, भाई (१) स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका (७) बुध महाचन्द्र कृत भजन सग्रह
पृ० ३३ (गाथा ६८) (क) जिन वाणी सदा सुख दानी।
सूक्ष्म निगोदीऽपर्याप्तकःXxxक्षुद्रभवकालं :/१८ जीवि. इतर नित्य निगोद मांहि जे, जीव प्रनत समानी, त्वा मृतः। एक सांस अष्टादश जामन-मरण कहे दुखदानी ॥ जिन. (२) दौलतविलास (पृ० १५)-सुधि लीज्यो जी म्हारी। (ख) सदा सुख पावे रे प्राणी।
लब्धि अपर्याप्त निगोद में एक उसांस मझारी । दे निगोद बसि एक स्वांस अष्टादस मरण कहानी।
जन्ममरण नव दुगुण व्यथा की कथा न जात उचारी। सात सात लख योनि भोग के, पड़ियो थावर पानी। स० सुधि लीज्यो जी म्हारी।
(4) स्वरूपचन्दजी त्यागीकृत-स्वरूप भजन शतक (३) मोक्षमार्गप्रकाशक (तीसरा अधिकार) पं० (क) काल अनंत निगोद बिताये, एक उश्वास लखाई। टोडरमल्ल जी सा०
अष्टादश भव मरण लहे पुनि थावर देह धराई । पृ० ६२ (एकेन्द्रिय जीवों के महान् दुःख) हेरत क्यों नहीं रे । निज शुद्धातम भाई।
बहरि मायुकर्मतें इनि एकेन्द्रिय जीवनि विर्ष जे अपर्याप्त (ख) दुख पायोजी भारी । नित इतर वैसि युग निगोद में, हैं तिनि के तो पर्याय की स्थिति उश्वास के १८ वें भाग
काल अनंत बितायो । विषिवश भयो उसांस एक में, मात्र ही है।