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eosपर्याप्त और निगोद
नहीं है । अगर देशाई जी हमारे इस लेख की रोशनी मे पुनविचार करे तो उन्हें भी धवला का कथन सुसगत प्रतीत होगा ।
भावपाड की उक्त २८वी गाथा की संस्कृतटीका श्रुतसागर ने शब्दार्थ मात्र की है । अतः उससे भी - विषय स्पष्ट नही होता है ।
इन दिनों श्री शांतिवीर नगर से भ्रष्टपाहुड ग्रन्थ प्रकाशित हया है जिसके हिन्दी अनुवादक श्री पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर हैं। अनुवादक जी ने उक्त गाथा २८ का अर्थ करते हुए लिखा है कि- ६६३३६ भव निकोत जीयो के होते है न कि निगोद जीवों के। निकोत शब्द का अर्थ प्राप ने मध्यपर्याप्त जीव किया है । किन्तु ग्राप ने ऐसा कोई शास्त्र प्रमाण नही लिखा जहाँ निकोत का अर्थ तक किया हो। वल्कि लाटी मंहिता सर्ग ५ इलो० ६१ ६२, ६४, ८२ मे माघा रण और निकोत दोनों को एकार्थवाचक लिखा है।
ऊपर जो ६६३३६ भव संख्या बताई है उसका मनसब यह है कि एक अनन्यपर्यातक जीव जिसकी कि श्रम और स्थावर पर्यायों में अलग-अलग अधिक से अधिक भवसंख्या प्रागम में बताई है उन सब भवो को यदि वह लगातार धारण करे तो ६६३३६ भव धारण कर सकता है। इससे अधिक नहीं, इन सबो को धारण करने में उसे श्वास कम एक मुहूर्तकाल लगता है जिसे "अन्त हुकाल " संज्ञा शास्त्रों में दी है। इस हिसाब से -
पर्याप्त जीव एक उच्छ्वास मे १८ बार जन्मता ५. जिस तरह " श्री महावीर जी" मे पोस्ट ऑफिस है उसी तरह नदी के इस पार "श्री शांतिवीर नगर". नाम से अलग नया पोस्ट प्रॉफिस खुल गया है ।
६. स्वामि कार्ति के यानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका पृ० २०४ गाथा २८४ में लिखा है :- निगोदं शरीरं येषा ते निगोवा: निकोता वा साधारण जीवाः । भाव पाहुडगाथा ११३ की श्रुतसागर कृत संस्कृत टीका में भी निगोद और निकोत एकार्थवाची ही लिखे हैं। मूलाचार (पंचाचाराधिकार गाया २८ की वसुनंदि कृत टीका) में पृ० १९४-१९४ पर निकोत [शब्द निगोद का पर्यायवाची शब्द दिया है।
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है और १८ बार मरता है। अतः १८ का भाग ६६३३६ में देने से लब्ध संख्या ३६८५- १/३ प्राती हैं। यानी ३६८५ उच्छवासों में वह ६६३३६ भव लेता है और एक मुहूर्त के १७७३ उपहास होते है। फलितार्थ यह हुआ कि ६६३३६ भव लेने मे उसे ८८ श्वास कम एक एक मुहूर्त का काल लगता है । इन ६६३३६ क्षुद्रभवों में से किसकिम पर्याय में कितने-कितने भव होते है उसका विवरण इस भांति है
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एकेन्द्रियों के द्वीन्द्रिय के त्रीन्द्रिय के
चतुरद्रय के
पचेन्द्रियों मे
असशी तिच के
सज्ञी
मनुष्य के
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कुल
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६६१३२
८०
६०
४०
१५१
८
६६३३६ देखो गोम्मटसार जीवकाड गाथा १२२ - श्रादि तथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा बड़ा पृ० ७६
एकेन्द्रियों के ६६१३२ क्षुद्र भवों का विवरण निम्न प्रकार है
चार स्थावर और साधारण वनस्पति ये पांचों सूक्ष्म बादर होने से १० भेद हुए । प्रत्येक वनस्पति बादर हो होती है अतः उसका एक भेद १० मे मिलाने मे ११ हुए। इन ११ का भाग उक्त ६६१३२ मे देन से लब्ध ६०१२ आते हैं। बस हर एक लब्धपर्याप्तक स्थावर जीव के ६०१२ क्षुद्रभव होते है । इस विषय को इस तरह समझना कि – कोई जीव किसी एक पर्याय मे मरकर पुनः पुन उसी पर्याय में लगातार जन्म-मरण करे तो कितने बार कर सकता है इसकी भी ग्राम नियत सख्या लिखी मिलती है। जैसे नारकी देव भोग भूमिया जीव. मरकर लगते ही दुबारा अपनी उसी पर्याय में पैदा नही हो सकते है। कोई जीव मनुष्य योनि में जन्म लिए बाद फिर भी उसी मनुष्य योनि में लगातार जन्म ले तो वह बार से अधिक नहीं ले सकता है । पृथ्वी प्रादि ४ सूक्ष्म पर्याप्तक स्थावर