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अनेकान्त
जीव मर मर कर अपनी उसी पर्याय में लगातार अधिक से अलब्धपर्याप्तक जोव अधिक से अधिक निरंतर अपने अधिक असंख्यबार जन्म ले सकते हैं। और पर्याप्तक ६०१२ क्षुद्रभव लिए बाद उन्हे निश्चय ही उस पर्याय से निगोदिया जीव अनंतबार जन्म ले सकते है। उसी तरह निकलना पड़ता है । पलब्धपर्याप्तक जीव के लिए लिखा है कि वह भी यदि
उत्तर अलब्धपर्याप्तक के भव धारण करे तो ऊपर जिस पर्याय हां वहां से उन्हें भी अवश्य निकलना पड़ता है। में जितने भव लिखे है वहां वह अधिक से अधिक उतने ही अलब्धपर्याप्तक पर्याय को छोड कर वे पर्याप्तक-निगोद भव धारण कर सकता है। जैसे किसी जीव ने सूक्ष्मनिगो- में चले जाते है। मूल चीज निगोद को उन्होने छोडी नहीं दिया में प्रलब्धपर्याप्तक रूप से जन्म लिया। यदि वह जिससे वे नित्यनिगोदिया ही कहलाते है । इसी तरह वे मरकर फिर भी वहां के वहा ही बार बार निरंतर जन्म पर्याप्त से अपर्याप्त और सूक्ष्म से बादर पव बादर से मरण करे तो अधिक से अधिक ६०१२ बार तक कर सूक्ष्म भी होते रहते है। होते रहते है निगोद के सकता है। इसके बाद उसे नियमतः पर्याप्तक का भव निगोद मे ही जिससे उनके निगोद का नित्यत्व बना ही धारण करना पडेगा। भले ही वह भव निगोदिया का ही रहता है। क्यों न हो । यदि वह पर्याप्तक मे न जाये और फिर भी निगोदिया जीव अलब्धपर्याप्तक अवस्था में निरन्तर उसे अलब्धपर्याप्तक ही होना है तो वह सूक्ष्म निगोदिया रहें तो अधिक से अधिक सिर्फ ४ मिनट तक ही रह में जन्म न लेकर बादर निगोदिया या अन्य स्थावर-त्रसो सकते है। क्योकि उनके लगातार क्षुद्रभव ६०१२ लिखे मे अलब्धपर्याप्तक हो सकता है। वहा भी जितने वहा के है। जो ३३४ उच्छ्वासों में पूर्ण हो जाते है । ३३४ क्षुद्रभव लिखे है उतने भव धारण किये बाद वहां से भी उच्छ्वासों का काल ४ मिनट करीब का होता है । इस निकल कर या तो उसे पर्याप्तक का भव लेना होगा या थोडे से ४ मिनट के समय में ६०१२ जन्म और इतने ही उसी तरह अन्य स्थावर त्रसों में अलब्धपर्याप्तक रूप से मरण करने से मूक्ष्म निगोदिया अलब्धपर्याप्तक जीवों के जन्म लेना होगा। इस प्रकार से कोई भी जीव यदि सभी इस कदर
इस कदर संक्लेशता बढ़ती है कि उसके कारण जब वे स्थावर त्रसो में निरंतर प्रलब्धपर्याप्तक के भवों को धारण जीव पाखिरी ६०१२ वां जन्म लेने को विग्रहगति मे ३ करे तो वह ६६३३६ भव ले सकता है, इससे अधिक नही।
मोडा लेते है तो प्रथम मोड़ मे ज्ञानावरण का ऐसा तीव्र ऊपर पलब्धपर्याप्तक मनुष्य के अधिक से अधिक ८
उदय होता है कि उस समय उनके प्रतिजघन्य श्रुतज्ञान लगातार क्षुद्रभव लिखे है जिनका काल प्राधे श्वास से भी
होता है। जिसका नाम पर्याप्तज्ञान है। यह ज्ञान का कम होता है। मतलब कि वह अर्द्धश्वास कालमात्र
इतना छोटा प्रश है कि यदि यह भी न हो तो पात्मा जड तक ही मनुष्य भव में रहता है। इतना ही काल अलब्ध
बन जाए। यह कथन गोम्मटसार जीव काड गाथा ३२१ पर्याप्तक पचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी तिर्यचों का है। तदुपरांत
में किया है। उन्हें या तो किसी पर्याप्तक में जन्म लेना पड़ेगा या अन्य
निगोद के विषय में एक और भ्रान्त धारणा फली किसी स्थावरादि मे प्रलब्धपर्याप्तक होना पड़ेगा।
हुई है। कुछ जैन विद्वान् ऐसा समझे हुए हैं कि-'नरक यहां प्रश्न
की ७वी पृथ्वी के नीचे जो एक राजू शून्यस्थान है, जहां अनादि काल से लेकर जिन जीवों ने निगोद से
कि सनाडी भी नहीं है वहाँ निगोद जीवों का स्थान निकलकर दूसरी पर्याय न पाई वे जीव नित्य नियोटिया है।"" ऐसा समझना गलत है। जो सूक्ष्म निगोदिया जीव कहलाते हैं। नित्यनिगोदिया जीव पर्याप्तक ही नही, . (१)सरत, जबलपुर आदि से प्रकाशित तत्वार्थसूत्र(पाठ्य बहत से प्रलब्धपर्याप्तक भी होते हैं । वहां के उन अलब्ध- पुस्तक) में तीन लोक का नकशा दिया है उसमे ७वे पर्याप्तिकों ने भी प्राज तक निगोदवास को छोडा नहीं है। नरक के नीचे एक राजू में निगोद बताया है। ऐसा ऐसी सूरत में पाप यह कैसे कहते है कि-निगोदिया ही कथन कार्तिकेयानुप्रेक्षा (रायचन्द्र शास्त्रमाला)