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शास्त्रीयचर्चा
अलब्धपर्याप्तक और निगोद पं० मिलापचन्द्र रतनलाल जैन कटारिया
संसारी जीव पर्याप्तक, निवृत्य पर्याप्तक और अलब्ध- असंज्ञी माना है और उनकी उत्पत्ति भोगभूमि में भी पर्याप्तक ऐसे तीन प्रकार के होते है। अलब्धपर्याप्तक लिखी है । जो जीव अलब्ध पर्याप्तक होते हैं उनकी जघन्य का पर्याय नाम लब्ध्यपर्याप्तक भी होता है । जिस भव में और उत्कृष्ट प्रायु एक उच्छवास के १८ वें भाग मात्र जितनी पर्याप्तियें होती हैं उतनी को जो पूर्ण कर लेते है होती है । अर्थात् न इससे कम होती और न इससे अधिक बे जीव पर्याप्तक कहलाते हैं। अगर उनके कम से कम होती है । शरीरपर्याप्ति भी पूर्ण हो जाये तब भी वे पर्याप्तक कहला दिगबर मतमें मनुष्यों के ह भेद इस प्रकार बताये हैंसकते है । और जो पर्याप्तियों को पूर्ण करने में लगे हुए आर्यखंड, म्लेच्छखंड, भोगभूमि और कुभोगभूमि हैं किन्तु अभी शरीर पर्याप्ति को भी पूरी नहीं की है (अन्तर्वीप) इन ४ क्षेत्रों की अपेक्षा गर्भज मनुष्यो के ४ प्रागे पूरी करने वाले हैं वे जीव निवृत्यपर्याप्तक कहलाते भेद होते हैं । ये चारों ही पर्याप्त-निर्वत्य पर्याप्त होनेसे ८ है । तथा जो जीव एक उच्छ्वास के १८वे भाग प्रमाण भेद होते हैं । सम्मूर्च्छन मनुष्य आर्यखंड में ही होते है और आय को लेकर किसी पर्याय में जन्म लेते है और वहां की वे नियम से अलब्धपर्याप्तक ही होते है । अतः उसका एक पर्याप्तियों का सिर्फ प्रारंभ ही करते है । अत्यल्प प्रायु ही भेद हुा । इस १ को उक्त ८ में मिलाने से कुल : होने के कारण किसी एक भी पर्याप्ति को पूर्ण न करके भेद मनुष्यों के होते है । मर जाते है वे जीव अलब्धपर्याप्तक कहलाते हैं। ऐसे अलब्धपर्याप्तक जीव एकेन्द्रिय को आदि लेकर पांचों जीवो के भव क्षुद्रभव कहलाते है । वे जीव १ उच्छ्वास मे ही इंद्रियों के धारी होते हैं। एकेन्द्रियों में पृथ्वीकायिक १८ बार जन्मते है और १८ बार मरते है । इस प्रकार के प्रादि अलब्धपर्याप्त-स्थावर जीव अपनी २ स्थावरकाय में क्षुद्रभवों के धारी अलब्धपर्याप्यक जीव ही होते है, अन्य पैदा होते हैं। इसी तरह विकलत्रय अलब्धपर्याप्तकों के नही । सभी सम्मूर्छन जन्म वाले जीव पर्याप्तक, निवृत्य- उत्पत्तिस्थान भी पर्याप्त विकलत्रयों की तरह ही समझने पर्याप्तक और अलब्धपर्याप्तक होते है। शेष गर्भ और चाहिये। तथा सम्मूच्छिम पर्याप्त तिचंचों के भी जो-जो उपवाद जन्म वाले जीव पर्याप्तक-निवृत्यपर्याप्तक ही उत्पत्तिस्थान होते हैं, उन्ही में सम्मच्छिम अलब्धपर्याप्तक होते है, अलब्ध पर्याप्तक नहीं होते। विशेष यह है कि- पंचेद्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति समझ लेनी चाहिये। क्योंकि सिर्फ सम्मूच्छिम मनुष्य अलब्धपर्याप्तक ही होते है। वे ये अलब्धपर्याप्तक जीव गर्भज तो होते नहीं, ये तो सब पर्याप्तक-निवृत्यपर्याप्तक नही होते है। सभी एकेद्रिय-विक- सम्मूच्छिम होते है। अत: जैसे अन्य पर्याप्त सम्मूच्छिम लेन्द्रिय जीवों का एकमात्र सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है। त्रसजीव इधर-उधर के पुद्गल परमाणुषों को अपनी कायें संज्ञीसंजी पंचेंद्रिय नरतियंच सम्मूर्च्छन जन्म वाले भी होते बनाकर उनमे उत्पन्न हो जाते हैं । उसी तरह ये पलब्धहैं और गर्भज भी होते हैं। भोगभूमि में सम्मूर्छम पर्याप्तक स जीव भी उत्पन्न हो जाते हैं । किन्तु अलब्धत्रस जीव नहीं होते है। प्रतः वहां अलब्धपर्याप्तक त्रस पर्याप्तक मनुष्यों की उत्पत्ति स्थान के विषय मे स्पष्ट जीव भी नहीं होते हैं। दिगंबर मत में सम्मूछिम मनुष्यों प्रागम निर्देश इस प्रकार है। -"कर्म भूमि में चक्रवातको भी संज्ञी माना है। परन्तु स्वेताम्बर मत में उन्हें बलभद्र-नारायण की सेनामों में जहां मल मूत्रों का क्षपण १. शास्त्रों में सिर्फ 'भपर्याप्तक' शब्द से भी इसका उल्लेख होता है उन स्थानों में, तथा वीर्य, नाक का मल, कान का किया है।
मल दंतमल, कफ इत्यादि अपवित्र पदार्थों में सम्मूच्छिम